पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६८३

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(१५६४ ) योगवासिष्ठ । कहते हैं, सो देह इंद्रियाँ पुरुष नहीं,अरु अंतःकरणचतुष्टय भी पुरुषनहीं, पुरुष केवल चिदाकाशरूप है, सो न कछु करता है, न किसीकर उसका नाश होता है, जैसे नट स्वांग ले आता है, अरु सब चेष्टा करता है, परंतु नदभावते आपको असंग देखता है, तैसे ज्ञानवान व्यवहार भी करता है, परंतु आपको अकर्ता असंग देखता है, अच्छेद्य हौं, अदाह्य हौं, अक्केद्य हौं, अशोष्य हौं, नित्य हौं, सर्वगत हौं, स्थिर हौं, अचल हौं, सनातन हौं । हे रामजी 1 इसप्रकार आत्माविषे जिसको अहंशतीति भई है, तिसका नाश कैसे होवे, अरु बंधमान कैसे होवै ? वह पुरुष भावै जैसे आरंभ करै, अरु भावै जैसे स्थानविषे रहे, तिसको बंधन कछु नहीं होता, पातालविषे चला जावे, अथवा आकाशविषे उड़ता फिरै, अथवा देशांतरविषे भ्रमता फिरै, तिसको न कछु अधिकता है, न कछु ऊनता है, पहारविषे चूर्ण हो जावै तौ भी चूर्ण नहीं होता, यह तौ चेतन पुरुष हैं, शरीरके नाश हुए इसका नाश कैसे होवै, ऐसे अपने स्वरूपविषे सदा स्थित है, आकाशवत् परम निर्मल है, अजर अमर शिवपद् है, ताते ।। हे रामजी ! ऐसे जानिकार अपने स्वरूपविषे स्थित होटु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे चेतनाकाशपरमज्ञानवर्णनं नाम द्विशताधिकद्वादशः सर्गः ॥ २१२ ॥ त्रयोदशाधिकदिशततमः सर्गः २१३. सर्वपदार्थाभाववर्णनम् ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! एक भावमात्र है, एक भासमात्र हैं, एक भासितमात्र हैं, भावमात्र कहिये केवल चतनमात्र, तिसविर्षे जो चैत्योन्मुखत्व अहंकार उत्थान हुआ, तिसका नाम भास है, बहुर। तिसविषे जो जगत हुआ, तिसका नाम भासित है, सो भासित कल्पितका नाम है, सो कल्पितके नाश हुए अधिष्ठानका तौ नाश नहीं होता क्यों कि, जो अधिष्ठान कछु अपरभाव होवै तौ नाश भी होवै, सो तौ कछु अपर बना नहीं, तिसके फुरणेविषे तीन संज्ञा हुई हैं, सो फुरणाभी