पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६८४

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सर्वपदार्थाभाववर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६.(१५६५) तिसका किंचन है, आत्मा फुरणे अफुरणेविषे ज्योंका त्यों है, जैसेस्पंदनिस्पंदविषे वायु एकही है, तैसे बोधअबोधविषे आत्मा एकही है, बोध अबोध ऊरणा अफ़रणा एकही अर्थ हैं ॥ हे रामजी । सो आत्मा किसकार अरु कैसे नाश होवै, चेतन भी मरता होवे तब इसका किंचन जगत कैसे रहे, किंचन कहिये आभास, सो आभास अधिष्ठानविना नहीं होता ताते आत्माका नाश नहीं होता, अरु तुम जो चेतनको भी मरता मानौ जो मारकै बहुरि नहीं उपजता, तो भी आनंद हुआ; मेरा भी यही उपदेश है, जो चेतनता मिटै, जब चेतनता उपजती है, तब जगत् भासता है, तिसके मिटते आत्माही शेष रहैगा, ब्रह्मचैतनका तौ नाश नहीं होता, अरु जो तू कहै वह चेतन नाश हो जाता है, यह अपर चेतन हैं, जिसते जगत् होता है तो ॥ हे रामजी ! अनुभव त एक है, उसका नाश कैसे मानिये, जैसे वरफ शीतल है, भावे किसी ठौरते पान कारये वह सबको शीतलही है, अरु अग्नि उष्णही है, जिस ठौरते स्पर्श कारये तही उष्णही है, तैसे आत्माका स्वरूप चेतन है, सो एक अखंडरूप है, जहां कोऊ पदार्थ भासता है, सो तिसी चेतनताकार प्रकाशता है, अरु चेतनसत्ता स्वच्छ निर्मल हैं, अद्वैत है, सदा अपने आपविषे स्थित है, तिसका नाश कैसे होवे, अरु जो तू शरीरके नाश हुए आत्माको नाश होता माने तो ऐसे नहीं, काहेते कि, शरीर यहाँ अखंड पडा है, वह परलोकविषे चेष्टा करता है, अरु पिशाच आदिकका शरीर भी नहीं हृष्ट आता, जो शरीरबिना अभाव होता होवे, तौ उनका भी अभाव हो जावै, ताते शरीरके अभाव हुए आत्माको अभाव नहीं होता, काहेते कि शरीरके मृतक हुए कछु चेष्टा शरीरसाथ होती नहीं, काहेते जो पुर्यष्टका जीवकला बीज नहीं, शरीर तौ अखंड पड़ा है, उसते कछु नहीं होता, जीव परलोकविष सुख दुःख भोगता है तो शरीरके नाश हुए नाश क्यों न हुआ अरु जो तू कहें, सब स्वभाव उसविषे रहता है, तौ सर्वकाल उसको क्यों नहीं देखता, उसी समय आपको मृतक देखता है, अरु बांधव भाई जन सब उसी समय मृतक जानते हैं, अरु जो तू कहै, जीवित धर्मकार वेष्टित है, इसीते सब अवस्थाका अनुभव