पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६८७

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(१९६८) योगवासिष्ठ । जाता है, जब वियोग होता है, तब कष्ट पाता है, अरु मैं ऐसे उपाय कहता हौं, जिसविषे यत्न भी थोड़ा होवै, अरु सुगम प्राप्त होवै, जो सो अब शास्त्रके अर्थविषे दृढ अभ्यास होता है, तब अजर अमरपद प्राप्त होता है, ताते तू बोधवान हो, बोधकरिकै अभ्यासका अजरपदके निमित्त यत्न करु, अरु जो यत्न न करेगा तो अज्ञानरूपी शत्रु लातें मारैगा, अरु जो शत्रुको मारना होवे, तौ निर्मान निर्मोह होकर आत्मपद्का अभ्यास करु ॥ हे रामजी ! जो पुरुष अबलग अज्ञानरूपी शत्रुके मारनेका यत्न नहीं करता, अरु आत्मपद पानेका यत्न नहीं करता, सो परम कष्टको पावैगा, संसाररूपी दुःखते कदाचित् मुक्त न होवैगा, अरु निकसनेका उपाय यही है, जो महारामायण ब्रह्मविद्याका उपदेश, तिसको विचारिकारकै अपने हृदयविषे धारणा, इस उपाय कारकै भ्रांति मिटि जावेगी, कैसा महारामायण उपदेश है, जो सर्व सिद्धांतका सार है, अरु अपर शास्त्रकार प्राप्त होवै, अथवा न भी होवै, परंतु इसके विचारकार अवश्य आत्माको प्राप्त होवैगा, जैसे तिलकी खलते तेल निकसना कठिन है, अरु तिलते तेल काढिये तौ निकसता है, तैसे मेरा उपदेश तिलकी नाईं है, अरु इतर है सो खलकी नाई है ॥ हे रामजी ! जेते कछु शास्त्र हैं, तिनविषे जो मुख्य सिद्धांत है, तिसविषे सार जो सिद्धांत है, सो मैं तुझको कहा है, जो आत्मा सदा विद्यमान है, तिसको भ्रांतिकारके अविधमान जानता है, तिसीके विद्यमान करनेको सर्व शास्त्र प्रवत्तें हैं, जो तिनके विचार कारकै भी आत्मपदको विद्यमान नहीं जानता, सो मेरे उपदेश विचारनेसों आत्मपदको विद्यमान नहीं जानैगा, यह निश्चय हैं॥ हे रामजी । अपर शास्त्रके दृढ़ विचार अरु यत्न कारकै जो सिद्धता होनी है, सो इस शास्त्रके विचार कारकै सुखेनही प्राप्त होवैगी, शास्त्रकर्ताका अपर लक्षण नहीं विचारना; शास्त्रकी युक्ति विचार देखनी है, जो कछु। सर्व शास्त्रका सार सिद्धांत है, सो मैं तुझको सुगम मार्गकरि कहा है, इसके विचारकर इसकी युक्ति देखें, अरु जो कछु अज्ञानी मुझको कहते हैं, अरु हँसते हैं, सो मैं सबही जानता हौं, परंतु मेरा जो कोङ दयाका स्वभाव है, तिसकर मैं चाहता हौं, कि किसी प्रकार नरकरूप