पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६८८

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सर्वपदार्थाभाववर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१५६९) संसारते निकलें, इस कारणते उपदेश करता हौं । हे रामजी! मैं तुझको जो उपदेश करता हौं, सो मैं किसी अपने अर्थके निमित्त नहीं करता, कि मेरा कछु अर्थ सिद्ध होवैगा, जो कोऊ तुझको उपदेश करता है सो 'सुन, तेरा जो कोऊ बडा पुण्य है, सोई शुद्ध संविच होकार मलीन संवितुको उपदेश करता हैं, सो संवित् न देवता है, न मनुष्य है, न यक्ष है, न राक्षस है, पिशाच आदिक भी नहीं, केवल जो ज्ञानमात्र हैं, सो भी तूही है, अरु मैं भी वही हौं, अरु जगत् भी वही है, जो सर्व वही है तो वासना किसकी करनी है ॥ हे रामजी ! इसको दुःखका कारण वासनाही हैं, जो पुरुष इस संसारबंधन दुःखकी चिकित्सा अब न करेगा, सो आत्महत्यारा है, अरु बडे दुःखविषे जाय पड़ेगा, जहांते निकसनेको कभी समर्थं न होवैगा, तब क्या करैगा, ताते अबहीं उपाय करे, जबलग सर्व भावकी वासना निवृत्त नहीं होती, तबलग स्वरूपका साक्षास्कार नहीं होता. इसीका नाम बंधन हैं, जब वासना क्षय होवैगी, तब आत्मपदकी प्राप्ति होवैगी; जेते कछु पदार्थ भासते हैं, सो अविचारते सिद्ध हैं, विचार कियेते कछु नहीं रहते, जो विचार कियेते न रहैं, तिनकी अभिलाषा करणी व्यर्थ है, जो वस्तु होती होवै तिसके पानेका यत्न भी करिये तो बनता है, अरु जो वस्तु होती होवै तिसके निमित्त यत्न करना मूर्खता है, यह जगत्के पदार्थ असत्यरूप हैं, जैसे शशेके शृंग असत् हैं, अरु जैसे मरुस्थलकीनदीअस होती है, वैसे यह जगत् असत् है, जो सम्यकुदर्शी ज्ञानवान् पुरुष है, सो जानता है, यह जगत् शशेके शृंगवत् असत् भ्रांतिमात्र है, इसके निमित्त यत्न करना मूर्खता है, जो पदार्थ कारणविना इष्ट आवै, तिसको भ्रांतिमात्र जानिये, आत्मा जगत्का कारण नहीं, ताते जगत् मिथ्या है, आत्मपद सब इंद्रियां अरु मनते अतीत है, अरु जगत् पांचभौतिक है, सो मन इंद्रियोंका विषय है, अरु आत्मपद है सो मन इंद्रियोंका विषय नहीं, तौ जगतका कारण कैसे कहिये, जो अशब्द पद है, सो नानाप्रकार शब्दका कारण कैसे होवै, जो निराकार आत्मपद हैं, सो पृथ्वी आदिक भूत नानाप्रकारके आकारका कारण कैसे होवै ।। हे रामजी । जैसा कारण होता