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योगवासिष्ठ।

निकसकर बहुरि डूबते हैं, इसी प्रकार पड़े गोते खाते रहते हैं, अरु जिन पुरुषोंने पुरुषार्थकरि आत्मपद पाया है, सो सुखसे विचरते हैं॥ हे मुनीश्वर! भूतकालकी मुझको चिंत्ता नहीं अरु भविष्यकालकी इच्छा नहीं, वर्तमानविषे यथाप्राप्त रागद्वेषते रहित होकरि विचरता हौं, सुषुप्तकी नाईं स्थित हौं, ताते केवल स्वरूपाविषे स्थित हौं, भाव अभाव पदार्थते रहित अपने आपविषे स्थित हौं, इस कारणते चिरंजीवता हौं, अरु दुःखते रहित हौं, प्राण अपानकी कलाको सम करिकै स्वरूपविषे स्थित हौं, इस कारणते निर्दुःख जीवता हौं, आज यह कछु पाया है, अरु यह कल पाऊंगा, यह चिंता दूर भई है, इसकारणते निर्दुःख जीवता हौं, न किसीकी स्तुति करता हौं, न कदाचित् निंदा करता हौं, अरु सर्व आत्मस्वरूप देखता हौं, इस कारणते सुखी जीवता हौं, इष्टकी प्राप्तिविषे मैं हर्षवान् नहीं होता, अनिष्टकी प्राप्तिविषे शोकवान् नहीं होता, इस कारणते निर्दुःख चिरंजीवता हौं, मैं परम त्याग किया है, सर्व आत्मभाव देखता हौं, जीवभाव दूरि हो गया है, इस कारणते अदुःख जीता हौं॥ हे मुनीश्वर! मनकी चपलता मिटि गई है, अरु रागद्वेष दूर हो गए हैं, मन शांतिको प्राप्त भया है, इस कारणते अरोग जीता हौं, काष्ठ अरु सुंदर स्त्री अरु पहाड़ तृण अग्नि स्वर्ण सर्वत्र समभाव देखता हौं, ताते निर्दुःख जीता हौं॥ अब हे मुनीश्वर! जरा मरणके दुःखविषे अरु राज्यलाभके सुखविषे शोकहर्षते रहित समभावविषे स्थित हौं, ताते निर्दुःख जीता हौं, यह मेरे बांधव हैं, यह अन्य हैं, यह मैं हौं, यह मेरा है, यह कलना मुझको कछु नहीं, ताते सुखी जीता हौं, आहार व्यवहार करता हौं, बैठता चलता सूंघता स्पर्श करता श्वास लेता हौं, परंतु यह जो अभिमान है, मैं देह हौं, इस अभिमानते रहित सुखी जीता हौं, इस संसारकी ओरते सुषुप्तरूप हौं, अरु इस संसारकी गतिको देख कर हँसता हौं, जो है, नहीं, यह आश्चर्य है, इस कारणते निदुःख जीता हौं॥ हे मुनीश्वर! सर्वदा काल सर्व प्रकार सर्व पदार्थविषे सम बुद्धि हौं, विषमता मुझको कछु नहीं भासती, न किसीकरि सुखी होता हौं न दुःखी होता हौं, जैसे हाथ पसारिये