पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६९०

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सर्वपदार्थाभाववर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१९७१) इनहीकारे बढ़ता जाता काहेते कि परमाणु जड हैं, वही बढते जाते हैं। सो ऐसे तो नहीं, बुद्धिपूर्वक चेष्टा होती दृष्ट आती है, इसीते कहा है, कि असत् कहते हैं; काहेते कि सूक्ष्म भी किसीते उत्पन्न हुआ चाहिये, अरु कोऊ रहनेका स्थान भी चाहिये, सो आत्माविषे देशकाल वस्तु तीनों कल्पित हैं, जो आत्माविषे यह न हुए तौ परमाणु कैसे होवे, जगत् कैसे होवे, आत्मा अद्वैत है, ताते जगत् न उपजा है, न नष्ट होता है, जो उपजा होता तौ नष्ट भी होता, जो उपजा नहीं तौ नष्ट कैसे होवे, आत्मसत्ता ज्योंकी त्यों अपने आपविषे स्थित है, ताते हे रामजी । मैं भी आकाशरूप हैं तू भी आकाशरूप है, सब जगत् भी आकाशरूप है, किसीके साथ आकार नहीं, सब निराकाररूप है, अरु जो तू कहे, बोलते चालते क्यों हैं, तो जैसे स्वप्नविषे सब आकाशरूप होते हैं, अरु नानाप्रकारकी चेष्टा करते हुए आते हैं, अरु बोलते चालते हैं, तैसे यह भी बोलते चालते हैं, परंतु आकाशरूप हैं, अरु जो तेरा स्वरूप है। सो श्रवण कर, देशको त्यागिकार जो देशतिरको संवित् जाता है; अरु तिसके मध्य जो ज्ञान संवित है, सो तेरा स्वरूप है, सो अनामय सर्व दुःखते रहित हैं, जैसे जाग्रत् देशको त्यागिकार स्वप्नमें जाती है,जाग्रत त्यागि दिया, अरु स्वप्न आया नहीं, मध्य जो अचेत चिन्मात्रसत्ता है, तैसे ह्रासरूप हैं, तिसविषे पंडित ज्ञानवान्का निश्चय है, ब्रह्मा विष्णु रुद्रादिक तिसीविषे स्थित रहते हैं, तिनको कदाचित उत्थान नहीं होता, जैसे बरफते अग्नि कदाचित् नहीं उपजती, तैसे तिनको स्वरूपते उत्थान कदाचित् नहीं होते, सो आत्मसत्ता कैसी हैं, न उपजती है, न विनशती है, न अपरकी अपर होती है, सर्वदा अपने स्वभावविषे स्थित है । हे रामजी ! जेता कछु जगत तू देखता है, सो वास्तव कछु उपजा नहीं, भ्रमकरिकै भासता है, जैसे स्वप्नविषे नानाप्रकारके आरंभ होते दृष्ट आते हैं, अरु जागेते अत्यंत अभाव भासते हैं, तैसे यह जगत् भी हैं, आदि जो अद्वैततत्त्वविषे स्वप्न हुआ है, तिसविषे ब्रह्मा उपजा है, तिसने आगे जगत रचा है, सो ब्रह्मा भी आकाशरूप है, स्वरूपते