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(१५७४) योगवासिष्ठ । हैं, तैसे अज्ञान कारकै जगत् सत्य भासता है, तिसविषे राग द्वेष भासते हैं, ज्ञान कारकै सब शांत हो जाते हैं ॥ हे रामजी ! यह जगत् भ्रममात्र है, ज्ञानवान्के निश्चयविषे सब चिदाकाश है, अरु अज्ञानीके निश्चयविषे जगत् है, जो बड़े क्षोभ आनि प्राप्त होवें तौ भी ज्ञानवान्को चलाय नहीं सकते, उसके निश्चयविषे कछु त नहीं फुरता, सदा एकरस रहता है, जो प्रलयकालके मेघ आनि गर्ने, अरु समुद्र उछलें, अरु पहाडके ऊपर पहाड पडै, ऐसे भयानक शब्द होवें, तौ भी ज्ञानवान्के निश्चयविषे कछु द्वैत नहीं फ़रता, जैसे कहूँ पुरुष सोया पड़ा है, तिसके स्वप्नविपे बड़े क्षोभ होते हैं, अरु जागृतको निकट बैठे। नहीं भासते, तैसे ज्ञानवान्के निश्चयविषे द्वैत कछु नहीं भासता, काहेते जो है नहीं अरु अज्ञानीको होते भासते हैं, जैसे वंध्या स्त्री स्वप्नविषे अपने पुत्रको देखती है सो अनहोता भ्रमकारि उसको भासता है, तैसे अज्ञानीको अनहोता जगत् सत्य होकार भासता है । हे रामजी । भ्रमकारकै अनहोता भासता है, अरु होतेका अभाव भासता है, जैसे वंध्या अनहोते पुत्रको देखती है, अरु पुत्रवाली स्वप्नविषे पुत्रका अभाव देखती है, तैसे अज्ञानकारकै अनहोता जगत सत्य भासता है अरु सदा अनुभवरूप आत्माको अभाव भासता है, सो भ्रमकारकै अपरका अपर भासता है, जैसे दिनको सोयाहुआ स्वप्नविषेकहूँ रात्रिको देखता है,अरु रात्रिको सोया हुआ स्वप्रविषे दिनको देखता है, अरु शून्य स्थानविषे नानाप्रकारका व्यवहार देखता है, अरु अंधकारविषे प्रकाशको देखता है, सो भ्रमकारकै देखता है, अरु पृथ्वीपर सोया है, अरु स्वप्नविषे आकाशमें दौडता फिरता है, अरु गत्तविषे गिरता आपको देखता है, सो भ्रमकारकै भासता है, तैसे यह जागृत जगत् भी विपर्ययरूप भ्रम कारकै देखता है, जागृत अरु स्वम्विषे भेद कछु नहीं, जैसे स्वप्नविषे मुए हुए भी बोलते चालते दृष्ट आते हैं ॥ हे रामजी । जैसे स्वप्नविषे तुमको नानाप्रकारका जगत् भासता है, अरु जागिकार कहते हौ, सब भ्रममात्र था, तैसे हमको यह जागृत् जगत् भ्रममात्र भासता है, जैसे जल अरु तरंगविषे भेद कछु नहीं, तैसे जागृत् अरु स्वप्नविषे भेद कछु नहीं, जैसे दो मनुष्य एकही