पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६९५

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अरु हैं दोन भ्रममात्र भासती है; भी हैं, उपजता इस (१५७६ ) योगवासिष्ठ । जाग्रत दोनों मिथ्या हैं, अरु मूर्ख स्वप्नते जब जागता है, तब जानता है, इसका नाम जागना है, इसको जाग्रत् मानता हैं, उसको स्वम जानता है, अरु है वह स्वप्नतिर, अरु यह स्वप्न है, इसविषे जो तीव्र संवेदन हो रहा है; इसते उसको जाग्रत् जानता है, अरु उसको स्वप्न जानता है, अरु हैं दोनों तुल्य, भेद कछु नहीं, आत्माविषे एक दोनों असत्यरूप हैं, इनकी प्रतिभा भ्रममात्र भासती है, अरु आत्मा न कदाचित् उपजता है न मरता है, अरु उपजताभी हैं। मरता भी हैं, उपजता इस कारणते नहीं कि पूर्वसिद्ध है, अरु मरता इस कारणते नहीं, कि भविष्यत्कालविषेष भी सिद्ध है, परलोकविषे सुखदुःखको भोगता है, अरु भ्रमकालविषे जन्मता भी है, मरता भी है, सो प्रत्यक्ष भासता है, अरु वास्तवते ज्योंका त्यों है । हे रामजी ! यह जगत् तिसका आभास है, चेतनका चमत्कार चैत्य होकार भासता हैं, जैसे घट मृत्तिकारूप है, मृत्तिकाते इतर कछु नहीं, तैसे चेतन भी चेतनरूप है, चेतनते इतर जगत् कछु नहीं, स्थावर जंगम जगत् सब चिन्मात्र है ॥ हे रामजी ! जैसे तुमको स्वम आता है, तिसविषे पत्थर पहाड भासते हैं, सो तुम्हाराही अनुभव रूप हैं, इतर तो कछु नहीं, तैसे यह दृश्य सब चिन्मात्ररूप है, जैसे घट मृत्तिकाते भिन्न नहीं, तैसे जगत् चिदाकाशते भिन्न नहीं, जैसे काष्ठके पात्र काष्ठते भिन्न नहीं, सब काष्ठरूप हैं, तैसे जगत् चेतनरूप हैं, चेतनते इतर कछु नहीं, जैसे पाषाणकी मूर्ति पाषाणरूप है, तैसे जगत् भी चेतनरूप है, जैसे समुद्र तरंगरूप हो भासता है, तैसे चेतन जगतरूप हो भासता है, जैसे अग्नि उष्णरूप है, तैसे चैत्य चेतनरूप है, जैसे वायु स्पंदरूप है, तैसे चेतन चैत्यरूप है, जैसे वायु निस्पंदरूप है,तैसे चेतन चैत्यरूप है, जैसे पृथ्वी घनरूप होती है, जैसे आकाश शून्यरूप होता है, जहां शून्यता है, तहां आकाश है, तैसे जहाँ चैत्य है, तहाँ चेतन है, जैसे स्वप्नविषे शुद्ध संवित् पहाड़ नदियाँरूप हो भासती हैं, जैसे चिन्मात्रसत्ता जगतरूप हो भासती है ॥ हे रामजी । जो कछु पदार्थ तुझको भासते हैं, तिनको त्यागिकार आत्माकी ओर देख, यह विश्व सब आत्मरूप है, शुद्ध चिदाकाशरूप निर्दुःख आकाशविषे निर्मल है, ऐसे जान