पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६९६

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जगनिर्वाणवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१५७७) करि तिसविषे स्थित होहु ॥ हे.रामजी ! जब तुझको स्वभावसत्ताका अनुभव साक्षात्कार होवैगा, तब जती कछु द्वैतकलना भासती हैं,सो सब शांत हो जावेंगी, केवल आत्मतत्त्व मात्र शेष रहैगा । इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे जाग्रतस्वकताप्रतिपादनं नाम चतुर्दशाधिकद्विशततमः सर्गः ॥२१४ ॥ पंचदशाधिकडिशततमः सर्गः २१५ जगविणवर्णनम् । राम उवाच ॥ हे भगवन् ! चिदाकाश कैसा है, जिसको तुम परमब्रह्म कहते हो, तिसका क्या रूप है, तुम्हारे अमृतरूपी वचनोंको पान करता मैं तृप्त नहीं होता, ताते कृपा कारकै कहौ । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जैसे एक माताके गर्भते दो पुत्र जोड़े उत्पन्न होते हैं,उनका एक जैसा आकार होता है, सो जगत्व्यवहार निमित्त उनका नाम भिन्न भिन्न होता है, अपर भेद कछु नहीं, अरु जैसे दो पात्रविषे जल राखिये तौ जल एकही है, अरु पात्रके नाम भिन्न भिन्न होते हैं, तैसे स्वप्न अरु जाग्रत् नाम दो हैं, परंतु एकही जैसे हैं, सो अत्माविषे दोनों कल्पित हैं, जिसविषे दोनों कल्पित हैं, सो चिदाकाश है, अरु वृत्ति जो फुरतीहै, देश देशतिरको जाती है तिसके मध्यविषे जो संविद ज्ञानरूप है, जिसके अश्रय वृत्ति फुरती है,सो चिदाकाशसंवित है,अरु वृक्षजो रसकोखूचिकारि ऊर्वको जाते हैं, सो तिसके आश्रय जाते हैं, ऐसी जो सत्ता है, सो चिदाकाशरूप है ॥ हे रामजी । जेते कछु वृक्ष हैं, फूल फल टास सो सब रसके आश्रय फुरते हैं, तैसे यह जगत् सब चिदाकाशके आश्रय फुरता है, तिसके आश्रये वृत्ति फुरती है,ऐसी जो सत्ता है सो चिदाकाश है, अरु जिसकी इच्छा सब निवृत्त हो गई है, अरु राग द्वेषरूपी मल निवृत्त भया हैं, शरत्कालके आकाशवत् जो शुद्ध संवित है, तिसको चिदाकाश जान ॥ हे रामजी । जगत्का जब अंत होता है, अरु जडता आई नहीं, तिसके मध्य जो अद्वैतसत्ता है, सो चिदाकाश है,अरु वल्ली