पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६९८

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कारणकार्याभाववर्णन-निर्वाणकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१९७९) चींटीपर्यंत जेता कछु स्थावर जंगम रूप भासता है, सो सब चिदाकाशरूप है, कछु उत्पन्न नहीं भया, जो दूसरा कछु न हुआ तौ कारण कार्य भी कछु न हुआ ॥ हे रामजी । न कोऊ द्रष्टा है, न दृश्य है, न भोक्ता है, न भोग है, सब कल्पनामात्र हैं, आत्मज्ञानकारि कल्पना उठती है, आत्मज्ञानकर लीन हो जाती है, जैसे समुद्रके जाननेते अपर तरंगकल्पना मिटि जाती है, अनुभव आत्माविषे कारण कार्य कछु नहीं, अरु जो तू कहे, कारण कार्य भासते क्यों हैं, तो जैसे इंद्रजालकी बाजीविषे नानाप्रकारके पदार्थ दृष्ट आते हैं, परंतु वास्तव कछु बने नहीं, तैसे यह जगत् कारण कार्य कछु बना नहीं, जैसे स्वप्नविषे अपना अनुभवही नगररूप हो भासता है, तैसे यह जगत् भासता है । हे रामजी ! आत्मसत्ताही फुरणेकरि जगतकी नाई भासती है, जिस जगतको यह इंद्ररूपकार कहती हैं, सो भी अहंरूप है, जिसको यह समुद्र कहता है, सो भी अहंकाररूप है, जिसको यह रुद्र कहता है, सो भी इसका अनुभवरूप है, इत्यादिक जैता कछु जगत् भासता है सो भावना मात्र है, जैसी इसकी भावना दृढ होती हैं, तैसा रूप होकार भासता है, जैसे चिंतामणि अरु कल्पांतरविषे जैसी भावना होती हैं, तैसेही सिद्ध होता है, तैसे आत्मसत्ताविषे जैसी भावना होती है, तैसी हो भासती है, ताते चिदाकाशका निश्चय हृढ़ होता है, तब अज्ञानकारकै जो विरुद्ध भावना भई थी सो निवृत्त हो जाती है । इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे जगवनिर्वाणिवर्णनं नाम पंचदशाधिकद्विशततमः सर्गः ।। २१५ ॥ द्विशताधिकषोड्शः सर्गः २१६. कारणकार्याभाववर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी जब मन थोड़ा भी फ़रता है, तब यह जगत् उत्पन्न हो आता है, अरु जब ऊरणेते रहित होता है, तब जगतुभावना मिटि जाती है, इसप्रकार जो जानता है, सो ज्ञान