पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७००

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अभावप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१९८१) तिसते इतर कहिये तो न द्रष्टा है, न दृश्य है, आत्मसत्ताहीज्योंकी त्यों है ॥ राम उवाच ॥ ब्राह्मण ब्रह्मके वेत्ता ! जो इसप्रकार है, तौ कार कार्यका भेद कैसे प्रवर्त्तता दीखता है ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । जैसा जैसा ऊरणा तिसविषे होता है, तैसा तैसा रूप हो भासता है, चेतन आकाशही जगतरूप हो भासता है,अपर न कहूँ कारण है, नकार्य है, जैसे स्वप्नसृष्टि कारणकार्यसहित भासती है, सो किसी कारणते तौ नहीं उपजी; अकारणरूप है, तैसे यह सृष्टि किसी कारणते नहीं उपजी अकारणरूप हैं, न कहूँ करता है, न भोगता है, भ्रम करिकै कर्ता भोक्ता भासता है, स्वप्नकी नई विकल्प उठते हैं, वास्तवते ब्रह्मसत्ताही है ॥ है। रामजी । जैसे स्वभविषे नगर अरु जगत् भासताहै, सो चिदाकाश अनु भवसत्ताही ऐसे हो भासती, अनुभवते इतर कछु नहीं, तैसे यह जगत् संपूर्ण चिदाकाश है,जब ऐसे जानैगा, तब जगत् भी भ्रमतत्त्व भासैगा। हे रामजी । यह जगत् चित्तके फुरणेकरिकै उपजा है, जैसे मूर्ख बालक अपने परछायेविषे वैताल कल्पता है, तैसे चित्तके भ्रमकार जगत्को केल्पता है, सो इसका कारण ब्रह्मही है, अपर कारण कहूँ नहीं, काहेते कि महाप्रलयविषे चिदाकाशही रहता है, सो कारण किसका होवै, वही सत्ता इंद्ररूप है, वही रुद्रूप हैं, नदियां पर्वत आदिक जेता कछु जगत् भासता हैं, सो वहीरूप हैं, तिसते इतर तौ द्वैतरूप कछु नहीं जैसा जैसा ऊरणा तिसविषे होता है, तैसा रूप भासता है, जैसे चिंतामणि कल्पवृक्षविषे जैसे भावना कहूँ करता है, तैसा रूप भासता है, तैसे आत्मसत्ताविषे जैसी भावना होती है, तैसाही पदार्थरूप हो भासता है॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे कारणकार्याभाववर्णनं नाम द्विशताधिकषोडशः सर्गः ॥ २१६॥ द्विशताधिकसप्तदशः सर्गः २१७. अभावप्रतिपादनम् ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । अचैत्य चिन्मात्र जो आकाशरूप आत्मसत्ता है, सो इस जगतरूप हो भासती है, शुद्ध चिन्मात्रविषे जब