पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

(१५८२) पौगवासिष्ठ । अहं ऊरणा होता है, तब जगत हो भासताहै, सो अहरूपी जीव है, जग विषे जीवता इष्ट आता है, परंतु मृतककी नई स्थित है, अरु तू मैं आदिक सबै जगत् जीवता बोलता चलता व्यवहार करताभी दृष्टआता है, परंतु काष्ठ मौनवत् स्थित हैं,आत्मरूपी रत्नका जगरूपी चमत्कार है, जो प्रकाश आत्माते भिन्न कछु नहीं; जैसे आकाशविषेतरुवरे भासते हैं, जैसे मरुस्थलविषे जल भासता है, जैसे धुंएका पर्वत मेघ भासता है, सो भ्रांतिमात्र है, तैसे यह जगत् लक्षण भी भासता हैं, परंतु वास्तवते कछु नहीं, अवस्तुभूत है, उपजा कछु नहीं ॥ हे रामजी ! चित्तरूपी बालकने जगत्जालरूपी सेना रची है, सो असत् है, पृथ्वी जल अग्नि वायु आदिक भूतं भ्रांतिमात्र हैं, तिनविषे सत् प्रतीति करनी मूर्खता है, बालककी कल्पनाविषे सत् प्रतीति बालकही करते हैं, इस जगतुको आश्रय कारकै जो सुखकी इच्छा करते हैं, सो क्या करते हैं, जैसे कहूँ आकाशके धोनेका यत्न करे, तैसे उनका यत्न व्यर्थ है, यह सब जगत् भ्राँतिरूप है, इसविषे जो आस्था करते हैं,अरु इसके पदार्थ पानेका यत्न करते हैं, सो क्या करते हैं,जैसे कहूँ पुत्र पानेका यत्न करे सो व्यर्थ हैं, तैसे जगतविषे जो सुखके पानेका यत्न करते हैं, सो व्यर्थ यत्न है ॥ हे रामजी ! यह पृथ्वी आदिक जो संपूर्ण भूत पदार्थ भासते हैं, सो भ्रांतिमात्र हैं, जो भ्रांतिमात्र हैं, तो इनकी उत्पत्ति किसकार कैसे कहिये,जो मूर्ख बालक हैं,तिनको पृथ्वी आदिक जगत्के पदार्थ सत्य भासते हैं, ज्ञानवान्को सत्य नहीं भासते, अज्ञानीको सत्य भासते हैं, तिनसाथ हमारा क्या प्रयोजन है, जैसे सोएको स्वप्नविषे आत्मअनुभवसत्ताही पृथ्वी पहाड नदियां जगत् हो भासती है, सो सब आकार भासते भी निराकाररूप हैं, तैसे यह जगत् आकार सहित भासता है,परंतु आकार कछु बना नहीं, वही निराकारसत्ता जगरूप हो भासती हैं, सो निराकारही है, अपर जगत् कछु नहीं, आत्मसत्ता ज्योंकी त्यों है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्र० अभावप्रतिपादनं नाम द्विशताधिकसप्तदशः सर्गः ॥ २१७ ॥ - - - -- -