पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७०४

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विपश्चितसमुद्रप्राप्तिवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराद्धे ६. ( १५८५) हे रामजी! इसप्रकार जब मंत्रीने कहा, तब राजाने वचन कहा, कि सब सेना मेरे संभवकार उनके सन्मुख जावे, निशान नगारे हस्ती घोडा रथी पियादा सेनाके साथ जावें, इसप्रकार जब राजाने कहा, तब सब सेना विद्यमान् अनि स्थित भई, नौबत नगारे बाजने लगे नानाप्रकारके शस्त्रसहित चारों प्रकारकी सेना इकट्ठी भई, तब राजाने कहा ॥ हे साधो ! तुम आगे जावो, सेना आगे होवे, तिसके पाछे सेनापति जावै, तिसके साथ युद्ध करहु, स्नान करके मैं भी चला आता हौं । हे रामजी ! इस प्रकार कहकर मंत्रीको चलाय अरु पाछे गंगाजलसे राजाने स्नान किया, एक स्थानविषे अग्निका कुंड था, तिसके निकट जायकार हवन किया, जब अग्नि बहुत प्रज्वलित भई तब राजाने कहा ॥ हे भगवन् ! एता काल सुझको व्यतीत भया है, कि यथाशास्त्र विचरता रहा हौं अरु अपनी प्रजाको सुखी राखी है, अरु अभय किया है, अरु शत्रुको नाश करनेहारा हौं, शत्रुको मार सिंहासनके तले दिया है, आप सिंहासनपर बैठा हौं, पातालवासी दैत्य सब मैं जीति राखे हैं, अरु देशों दिशा अपने अधीन करी हैं, सात समुद्रपर्यंत मेरे भयकारि कैंपते हैं, अरु सब ठौर मेरी कीर्ति हो रही है, अरु रत्नोंके स्थान मेरे भरे हुए हैं, वस्त्र सेना घोडे हाथी भी बहुत हैं, अरु बडे भोग भी मैं भोगे हैं, अरु दान भी बड़े बड़े किये हैं, सिद्ध देवताविषे भी मेरा यश हुआ है, सब ओर मेरा यश हुआ है, अरु शरीर भी बड़ा हुआ है, अरु क्षोभ भी बडा आनि प्राप्त भया है. अब मेरा जीवनेते मरणा भला है ॥ हे भगवन् ! मैं तुमको शीश निवेदन करता हौं, कृपा कारकै लेवहु, अरु जब मुझपर प्रसन्न होवोगे, तब एककी चार मूर्ति देना जो चारों ओरको जावें, अरु जहां मुझको कछु कष्ट होवै तहां दर्शन देना ॥ हे रामजी । इसप्रकार कहकर खङ्ग निकास अपना शीश काटिकर अग्निविषे डारि दिया अरु धड आपही अग्निविषे जाय पडा, शीश धड दोनों भस्म होगये अग्निने भक्षण कारलिये, बहुरि उसी जैसी चार मूर्तियां निकस आईं, उसी जैसे आकार वस्त्र भूषण मुकुट कवच पहिरे हुए नानाप्रकारके शस्त्र धारे हुए उदय १००