पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७०८

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जीवन्मुक्तलक्षणवर्णन–निर्वाणप्रकरण उत्तराई ६. (१५८९ ) देवियां विलास करती हैं, कहूं योगी रहते हैं, कहूं ऋषीश्वरमुनीश्वर रहते हैं, कहूं ब्रह्मचारी वैरागी रहते हैं,इत्यादिक पुरुप रहते हैं, यह द्वीप हैं, अरु शांत समुद्र हैं, जिनके बडे तरंग उछलते हैं, अरु पर्वतका कौतुक देख, आकाश देख, चंद्रमा सुर्य तारे देख, ऋषि मुनि देख,सर्वको ठौरकाश दे रहा है, महापुरुषकी नाँई, अरु आप सदा असंग रहता है, शुभअशुभ दोनोंविषे तुल्य है, स्वर्गादिक शुभ स्थान हैं, अरु चांडाल पापी नरक स्थान हैं, अरु अपवित्र हैं परंतु आकाश दोनों विषे तुल्य हैं, असंगता कारिकै निर्विकार है,जैसे ज्ञानीका मन सर्व स्थानते निर्लप होता है, तैसे आकाश सर्व पदार्थ ते असंग अरु न्यारा है, अरु महात्मा पुरुषकी नाँई सर्वव्यापी है ।। हे आकाश! तू कैसा है, सर्व प्रकाश तेरेविषे अंधकार दृष्ट आता है, यह आश्चर्य है ॥ हे आकाश 1 तू सबका आधारभूत है, तुझको शून्य कहते हैं, सो मूर्ख हैं, दिन तुझविषे श्वेत भासते हैं, और रात्रिको अन्धकार भासता है, अरु संध्याकालमें तेरेविषे लाली भासती है, अरु तू तीनोंते न्यारा हैं, यह तीनों राजसी तामसी सात्त्विकी गुण हैं, तू इनके होते भी असंग है । हे आकाश ! तू निर्मल है, प्रकाश अरु तप तेरेविषे दृष्टि अआते हैं, परंतु तू सदा ज्योंका त्यों है, यह अनित्यरूप है, चंद्रमा तेरेविष शीतलता' करता है, अरु सूर्य दाहक होता है, अरु तीर्थ आदिक पवित्र स्थान हैं, पापी आदिक अपवित्र स्थान हैं, परंतु सबविषे एक समान ज्योंका त्यों रहता है, वृक्षके बढने ऊंचे होनेको तूही स्थानदेता है,अपनी महिमाको तू आपही जानै अपर कोऊ तेरी महिमाको पाय नहीं सकता, तू निष्किचन अद्वैत है, अरु सर्वको धारि रहा है, अरु सर्वका अर्थ तेरेकर सिद्ध होता है, तृण जल नीचेको जाता है, अरु तू सबते ऊंचा है, अरु विधु है, अनेक पदार्थ तेरेविषे उत्पन्न होते हैं, अरुनष्ट हो जाते हैं, तू सदा ज्योंका त्यों रहता है, जैसे अभिते चिनगारे उपजते हैं, अरु अग्निहीविषे लीन हो जाते हैं, तैसे तेरेविषे अनंत जगत् उपजते हैं, अरु लीन होते हैं, तू सदा ज्योंका त्यों रहता है, जो तुझको शून्य कहते हैं, सो मूढ हैं ॥ हे राजन् ! ऐसा आकाश कौन है, सो सुन, ऐसा आकाश