पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

(१५९२) योगवासिष्ठ । उनके अनुसार तिसको विषयकी तृष्णा उत्पन्न होती हैं, तिससे वर्जन करते हैं, रे जिज्ञासी! तू मूर्ख अज्ञानीविषे मत बैठ अपने संतजन कुल हैं, तिनविषे बैठ, जैसे कोयलके बच्चेको कौए सुख देनेहारे नहीं होते तैसे मूर्ख तुझको सुख देनेहारे नहीं होवेंगे, मंत्री बहुरि कहता है, अरी ईल ! तू क्यों हंसकी रीस करती है, तू भी बहुत ऊंचे उड़ती है, परंतु हँसका गुण तेरेविषे को नहीं, जब तू माँसको पृथ्वीपर देखती है, तब वहाँ गिरते पडती है, अरु हंस नहीं गिरते, तैसे जो मूर्ख हैं सो संतकी नई ऊंचे कर्म भी करते हैं, परंतु विषयको देखकर गिरते हैं, अरु संत नहीं गिरते तौ मूर्ख संतकी कैसे रीस करें, बहुरि मंत्री कहता है ॥ हे बगला ! तू इसकी रीस क्या करता है,अपने पाखंडको छिपायकार तू आपको हँसकी नई उज्वल दिखाता है, जब मच्छ निकसता है, तब तू ग्रासिलेता है, यह तेरेविषे अवगुण है, अरु हंस मानस सरोवरके मोती चुगनेहारे हैं, तू टोएमैते तृष्णा कारकै सच्छी खानेहारा है,तू क्यों आपको हंस मानता हैं। तैसे अज्ञानी जीव विषयकी तृष्णा करते हैं, अरु ज्ञानवान् विवेक कारि तृप्त हैं, तिनकी रीस अज्ञानी क्या करता है ॥ हे राजन् । जो हंस हैं सो सदा अपनी महिमाविषे रहते हैं, अरु अपना जो मोतीका आहार है, तिसको भोजन करते हैं, अपर किसी पदार्थको स्पर्श नहीं करते जैसे चंद्रमुखी कमल चंद्रमाको देखकर शोभा पाते हैं, चंद्रमाविना शोभा नहीं पाते तैसे बुद्धि भी तब शोभा पाती है, जब ज्ञान उदयहोतां है, आत्मज्ञानविना बुद्धि शोभा नहीं पाती, अरु बड़े बड़े सुगंधिवाले वृक्ष हैं, तिनका माहात्म्य भवरेही जानते हैं, इतर जीव नहीं जानते ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! समुद्रके कोठेपर राजा विपश्चितको मंत्री ऐसे कहकर बहार कहत भये । हे राजन् ! अब पृथ्वी नगरके मंडलेश्वर स्थापन करौ । हे रामजी ! जब ऐसे मंत्रीने कहा तब सर्व दिशाके मंडलेश्वर स्थापन किये; चारों राजा जो बैठे थे, अपनी अपनी दिशाके समुद्र ऊपर सो आपसमें कहत भये अपने मंत्रीसों ॥ हे साधो । अब हम दिग्विजय करी हैं, समुद्रपर्यंत अब हमारी जय हुई है,अब चैत्य जो हैं दृश्य सो दृश्य विभूतिको देख, समुद्रके पार द्वीप है, बहुरि समुद्र है, बहुरि