पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

(१५९४ ) योगवासिष्ठ । तिलको प्रणाम करते थे, विष्णु भगवान्के मच्छ अवतार के परिवारविर्ष था, जब राजाने क्षीरसमुद्रविषे प्रवेश किया, तब राजाको मुखमें डारि लिया, तब राजा मंत्रके बलकार तिसके मुखते निकस गया,अगे बारे एक मच्छ था, तिसनेभी मुखमें लिया, तिसते भी निकस गया, बहुरि आर पिशाचनीका देश था, वहां राजाको काम करिकै पिशाचने मोहित किया, अरु दक्षप्रजापतिकी कछु अवज्ञा करी, तिसने शाप दिया, तिस-- करि राजा वृक्ष हो गया, केता काल वृक्ष रहा, बहुरि छूटा, एक देशविणे दर्दुर जाय हुआ, सौ वर्षपर्यंत खाईंविषे पड़ा रहा, बहुरि तिसते छूटा मनुष्य आय भया, तहाँ किसी सिद्धके शापकार शिला हो गया, सौ वर्षपर्यंत शिलाही रहा, तिसते उपरां। अग्निदेवताने शिलाते छुड़ाया, बहुरि मनुष्य हुआ, तब वह सिद्ध आश्चर्यमान हुआ कि मेरे शापको दूर कारकै मनुष्य हुआ हैं, यह तौ मुझसों भी बडा सिद्ध है, ऐसे जानकारि तिसके साथ मैत्री करी, इस प्रकार दूसरे समुद्रको लंघता भया, क्षीरसमुद्र, खारी समु३, इक्षु के रसके समुद्र को, द्वीपको लंचता गया, बहुरि एक अप्सरा करिके मोहित हुभा, बहुत कालकार वहाँते छूटा. बहुरि एक देशविषे पक्षी हुआ, बहुत कालपर्यंत पक्षी होकर छूटा, बहुरि एक गोपी पिशाचनी थी, तिसने बैल कारकै रावा, तब दूसरे विपश्चितने बैल विपश्चितको उपदेशकारि जगाया ॥ हे रामजी 1 चारों दिशाविषे चारों विपश्चित भ्रमते फिरे, दक्षिण दिशा तौ पिशाचिनी कारकै मोहित हुआ, कामुक भया, इसते लेकर वह जन्मोंको पावत भया, अरु पूर्वका बहता हुआ मच्छके मुखमें चलागया उसने निकास डारा, इसते लेकर तौ वह अवस्था देखत भयो, अरु उत्तर दिशाका जो होत भया, इसी लेकार अवस्था देखत भया, अरु पश्चिम दिशाका हेमचुपक्षीकी पीठपर जो प्राप्त हुआ तिसने कुशदीपविषे जाय डारा, इसते लेकर वह भी अनेक अवस्थाको प्राप्त हुआ ॥ हे रामजी । एक एक विपश्चित अनेक योनि अरु अवस्थाका भिन्न भिन्न अनुभव करत भये ।। राम उवाच ॥ हे भगवन् । तुम कहते हौ विपश्चित एकही था, उनकी संवत् भी एकही थी आकार