पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७१४

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जीवन्मुक्तलक्षणवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. ( १५९५) भी एकही था, तौ भिन्न भिन्न रुचि कैसे भई, जो वह पक्षी हुआ, वह वृक्ष हुआ, इनते लेकर वासनाके अनुसार शरीरको पाते फिरे । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! इसविषे क्या आश्चर्य हैं, उनकी संविद एक थी, परंतु भ्रमकारकै भिन्नता हो जाती है, जैसे किसी पुरुषको स्वप्न आता है, तिसविषे पशु पक्षी हो जाते हैं, अरु भिन्न भिन्न रुचि भी हो जाती है, तैसे उनकी भिन्न भिन्न रुचि हो गई, अरु अपर देख जो शरीर * एकही होता है, तिसविषे नेत्रश्रवण नासिका जिह्वा त्वचाकी रुचि भिन्न भिन्न हो जाती है, अपने अपने विषयको ग्रहण करती है, सो एकही शरीरविषे अनेकता भासती है, तैसे उनकी एकही संविद थी, परंतु 'संकल्प भिन्न भिन्न हो गया, मनके फुरणेकरि एकविघे अनेक भासे, जैसे एकहीं योगेश्वर होता है, सो इच्छा करिकै अपर अपर शरीरको धारि लेता है, एकविषे अनेक हो जाता है, अरु एक सहस्रबाहु अर्जुन था, सो एक भुजासाथ युद्ध करता था, दूसरी भुजासाथ दान करता था, अरु एकसाथ लेता था, इसी प्रकार सत्र भुजासाथ चेष्टा करता था, वह भी भिन्न भिन्न हुए, एकही शरीरविषे भिन्न भिन्न चेष्टा होती है, अरु विष्णु भगवान् कहूँ दैत्यसाथ युद्ध करता है, कहूँ कर्म करता है, कहूँ लीला करता है, कहूँ शयन कर रहता है, सो संवित तौ एकही है, परंतु चेष्टा भिन्न भिन्न होती है, तैसे उनकी संविविषे अनेक रुचि हुई, इसविषे क्या आश्चर्य है ॥ हे रामजी । इसप्रकार जन्मते जन्मतिरको अविद्यक संसारविषे देखत भये ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! वह तौ बोधवान् विपश्चित थे, बोधवान् तौ जन्म नहीं पाते, उनका जन्म किस प्रकार हुआ । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! वह विपश्चित बोधवान् न थे, परन्तु बोधके निकट थे, धारण अभ्यासवाले थे, जो ज्ञानवान् होते तो दृश्यभ्रम देखनेकी इच्छा काहेको करते, ताते वह ज्ञानवान् न थे, धारणा अभ्यासी थे, अरु समुदको लंघि गये, अरु मच्छके उदरते बलकार निकसे, सो यह योगशक्ति प्रसिद्ध है, ज्ञानका लक्षण स्वसंवेद है, परसंवेद नहीं; राजा विपश्चित ज्ञानवान् न थे इस कारणते देशदेशांतरविषे भ्रमते रहे, ज्ञानविना अविद्यक संसारविषे.