पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७१७

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( १५९८) योगवासिष्ठ । गते क्षोभ कछु न हुआ॥ हे रामजी! काम जैसा अपर कोऊ विकार नहीं जो सदाशिव पार्वतीको डावे अंगपर धारते हैं,अरु कामदेवके पाँच बाण चलनेकर सर्व विश्व मोहित होती है,तिस कामको सदाशिवने भस्म कर छोडा है,तौस्त्रीके त्यागनेको समर्थ नहीं क्या,परंतु तिनको राग द्वेष कछु नहीं, इस कारणते त्याग नहीं करते, त्यागनेकार कछु अर्थ सिद्ध नहीं होता,रखनेकार कछु अनर्थ नहीं होता,जो कछु प्रवाहपतित कार्य हुआ है, तिसको करताहै, खेद कछु नहीं मानता, ताते जीवन्मुक्त है,अरु विष्णुजी - सदा विक्षेपमें रहताहै,आपभी कर्म करताहै, अरु लोकसभी करावताहे, शरीरको धारताहै, अरु त्यागी होताहै, वृद्धि करताहै,इत्यादिक क्षोभविषे रहता है, सो त्यागनेको समर्थ भी है, परंतु त्यागनेविषे उनका कछुकार्य सिद्ध नहीं होता, अरु करनेविषे कछु हानि नहीं होती, उसको कईगुणकारि गुणवान्जानते हैं, अरु मुझको तौ शुद्ध चिदाकाशरूप भासता है,, मूर्ख कहते हैं, श्याम है, सुंदर है, विष्णु तौ शुद्ध चिदाकाशरूप है, सदा शुद्ध स्वरूपविधे उनको अहंप्रत्यय है, अरु आकाशमार्गविषे जो सूर्य स्थित है, सो कबहूँ ऊर्ध्वको जाता है, कबहूँ नीचेको जाता है, तिसको स्थिति होनेकी क्या समर्थता नहीं है परंतु चलना अरु ठहरना तिसको दोनों सम हैं, खेदते रहित होकर प्रवाहपतित कार्यविषे रहता है, ताते जीवन्मुक्त हैं, अरु जीवन्मुक्त चंद्रमा भीहै, सो घटता घटता सूक्ष्म होता दृष्ट आता है,कबहूँ बढता जाता हैं, शुक्ल अरु कृष्ण दोनों पक्ष तिसविषे रहते हैं, सो रात्रिको प्रकाशताहै, वह अपनी क्रियाको त्याग नहीं सकता परंतु क्षोभते रहित होकर प्रवाहपतित कार्यविषे विचरता है, ताते जीवन्मुक्त है, अरु अग्नि सदा दौड़ता रहता है, यज्ञ होमके भोजन करनेको सर्व ओर जाता है, उसको ग्रहविषे बैठनेकी क्या समर्थता नहीं परंतु जो अपना आचार है तिसको त्यागता नहीं ठहरनेविषे कछु कार्य सिद्ध नहीं होता अरु चलनेविषे कछु हानि नहीं होती, दोनों विषे तुल्य जीवन्मुक्त है । हे रामजी ! बृहस्पति अरुशुकको बडा क्षोभ रहता है, बृहस्पति देवताकी जयके निमित्त यत्न करता है, अरु शुक्र दैत्यके जयके निमित्त यत्न करता रहता है, क्या इनको त्यागनेकी समर्थता नहीं