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परमार्थयोगोपदेशवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

वहांते उठि खडा हुआ, अरु आकाशमार्गको चला, जैसे पक्षी उड़ता है, तैसे मैं उड़ा वह भी मेरे साथ उड़ा, परस्पर हम दोनों हाथ ग्रहण किये, एक योजनपर्यंत चले गये, तब मैंने उससे कहा॥ हे साधो! तुम अब यहांहीते फिरौ, बारंबार कहिकरि उसको स्थित किया, मैं चला गया, जबलग मैं उसको दृष्ट आता रहा तबलग वह देखता रहा, जब मैं दृष्ट आनेते रहा तब वह अपने स्थानमें जाय बैठा मैं सप्तर्षिके मंडलविषे आय स्थित भया, अरुंधतीकरि पूजित हुआ॥ हे रामजी! यह भुशुण्डके वचन मैं तुझको आश्चर्यरूप सुनाये हैं, अब भी सुमेरुके श्रृंगऊपर उस कल्पवृक्षकी लताविषे कल्याणरूप सम स्थित है, अरु शांतिरूप है, मान्य करनेके योग्य है; अरु सदा समाधिवान् है, ऐसा पुरुष अबलग वहांही स्थित है॥ हे रामजी! यह हमारा अरु उसका समागम जब सत्ययुगके दो सौ वर्ष व्यतीत हुए थे तब हुआ था, अब सत्ययुग क्षीण हुआ है, त्रेतायुग बरता है, तिसविषे तुम उपजे हौ, हे रामजी! अब भी अष्ट वर्ष व्यतीत हुए हैं, कि हमारा उसका मिलाप हुआ था, तिसी वृक्षलताके उपर है॥ हे रामजी! यह मैंने जो तुझको इतिहास कहा है, सो परम उत्तम है, इसको विचारैगा, तब संसारभ्रम निवृत्त हो जावैगा, अब यह मुनि वसिष्ठ अरु भुशुण्डकी कथा जो निर्मलबुद्धिसे विचारैगा, सो भवरूप संसारके भयते तरैगा॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे भुशुण्डोपाख्यानसमाप्तिवर्णनं नाम त्रयोविंशतितमः सर्गः ॥२३॥



चतुर्विंशतितमः सर्गः २४.

परमार्थयोगोपदेशवर्णनम्।

वसिष्ठ उवाच॥ हे अनघ! यह मैं तुझको भुशुण्डका वृत्तांत सब कहा है, इस बोध करिकै भुशुण्ड महासंकटको तरा है, इस दशाको तुम भी आश्रय करिकै प्राणकी युक्तिका अभ्यास करौ, तब तुम भी भुशुण्डकी नाईं भवसमुद्रक पारको प्राप्त होहुगे, जैसे भुशुण्ड ज्ञानयोगकरि पाने योग्य पद