पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७२२

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विपवितोपाख्यानवर्णन-निणप्रकरण, उत्तराई ६. (१६०३) को क्षोभ नहीं, परम शांत है, अरु अनंत है, अरु सर्वका अपना आप है ॥ हे रामजी । अब बहुरि विपश्चितकी वार्ता सुन, जब वह लोकालोक पर्वतपर जाय स्थित भये, तब एक शून्य जैसा खींत दृष्ट आया, पर्वतस उतरकर खातविष जाय पड़ा, खात भी पर्वतके शिखर ऊपर था, अरु तहां पक्षी भी शिखरकी नाई बडे थे उन पक्षियोंने चंचसों इसका शरीर चूर्ण किया, तब यह अपने स्थूल शरीरको त्यागिकर सूक्ष्म अंतवाहक शरीर अपना जानत भया ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! आधिभौतिकता कैसे होती है, अरु अंतवादक क्या है, बहुरि क्या करत भया सो कहौ । वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी ! जैसे संकल्पकरिंकै दूरते दूर चला जावै, अरु जिस शरीरसाथ जावे सो अतवाहक है, अरु जो पांचभौतिक शरीर यह प्रत्यक्ष भासता है, सो आधिभौतिक है, जहां मार्गकरि जानेको चित्तका संकल्प उठता है, तब स्थूल शरीर गयेविनां वह पहुँच नहीं सकता, जब मार्गकार चलै तब पहुँचता है, सो आधिभौतिक हैं, अरु यह प्रमादकर होता है, जैसे जेवरीके भूलनेकार सर्प भासता है, जैसे आत्माके अज्ञानकार आधिभौतिक शरीर भासता है, जैसे मनोराज्यके पुर बनावे, तिसविषे आप भी एक शरीर बनकर चेष्टा करता फिरै, सो जबलग पूर्वका शरीर विस्मरण नहीं भया, तबलग संकल्पशरीरसाथ चेष्टा करता है, सो अंतवाहक है, तिसको संकल्पमात्र जानना सो विशेषबुद्धि कहाती है, अरु आत्मबोध नहीं भया, जब तिस संकल्पशरीरविषे दृष्ट भावना होती है, तिसका नाम आधिभौतिक होता है, सो घट बढ कहाता है, ताते जबलग शरीरका स्मरण है, तबलग आधिभौतिकता नहीं होती, अरु जब विस्मरण होता है, तब आधिभौतिकता हो जाती है; अरु विपश्चित जो आधिभौतिक थे, सो आत्मबोधते रहित थे, अरु जहाँ चाहूँ। - तहां चले जाते थे, अरु स्वरूपते न कछु अंतवाहक है, न कछु आधिभौतिक है, प्रमाद कारकै आकार भालते हैं, वास्तव सब चिदाकाशरूप है, दूसरी वस्तु कछु बनी नहीं, सब वही है, तिसके प्रमादकरिकै विपक्षित अविद्यक जगतको देखने चले थे, सो अविद्या कछु