पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७२३

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(१६०४ ) योगवासिष्ठ । वस्तु नहीं, ब्रह्मही है, तौ ब्रह्मका अंत कहाँ आवै, वहाँते चला परंतु जाने कि मेरा अंतवाहक शरीर है, सब पृथ्वीको लंघि गया, तिसके परे जलको भी लंघि गया, तिसते परे जो सूर्यवत् दाहक अग्निका आवरण है प्रकाशवान्, तिसको भी लंघि गया, मेघ अरु वायुके आवरणको भी लंघा, आकाशको लंघि गया, तिसके परे ब्रह्माकाश था, तहां इसको संकल्पके अनुसार बार जगत् भासने लगा, तिसको भी लंघि गया, बहार तिसके आगे ब्रह्माकाश हैं, फेरि पांचभौतिक भास आये तिसके आवरणको भी लंघि गया, वार तिस ब्रह्मांड कपाटके परे तत्त्वको लंघिकरि ब्रह्माकाश आया, बार तिसविषे अपर पांचभौतिक ब्रह्मांड था, तिसको लंघि गया, अरु अत न पाया, स्वरूपके प्रमादकार दृश्यके अंत लेनेको भटकता फिरा सो अविद्यारूप संसार अंत कैसे आवै, जबलग अंत लेनेको भटकता फिरता है, तबलग अविद्या है, जब अविद्या नष्ट होवैगी, तबहीं अविद्यारूप संसारका अंत आवैगा ॥ हे रामजी 1 जगत् कछु बना नहीं, वही ब्रह्माकाश ज्यों ज्यों स्थित है, तिसका न जाननाही संसार है, जबलग उसका प्रमाद है, तबलग जगत्का अंत न आवैगा, जब स्वरूपका ज्ञान होवैगा, तब अंत आवैगा, सोजानना क्या है, चित्तको निर्वाण करनाही जानना है, जब चित्तनिर्वाण होवैगा, तब जगत्का अंतआवैगा, जबलग चित्त भटकता फिरता है, तबलग संसारका अंत नहीं आता, ताते चित्तका नामही संसार है, जब चित्त आत्मपदविपे स्थित होवैगा, तब जगत्का अंत होवैगा,इस उपायविना शांति नहीं प्राप्त होती ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे विपश्चितोपाख्यानवर्णनं नाम द्विशताधिकविंशतितमः सर्गः ॥ २२० ॥ हिशताधिकैकविंशतितमः सर्गः २२१. ' विपश्चितशरीरप्राप्तिवर्णनम् । 'राम् उवाच ॥ हे भगवन् ! वह जो दो विपश्चित थे, तिनकी क्या दशा भई वह भी कहौ, वह तो दोनोंकी एकही कही ॥ वसिष्ठ उवाच॥