पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

( १६९६) योगवासिष्ठ । किंचनरूप जगत होकार भासती है, परंतु किंचन भी कछु भिन्न वस्तु नहीं, एक है, न दो है, एक कहना भी नहीं होता, दो कहां होवे, अरु जगत् कहाँ होवै, यही अविद्या है, जो है नहीं अरु भासती हैं, जिस जिस आकारविषे जैसी जैसी वासना फुरती है, बहुरि जो दृढ हो जाती है, तिसीकी जय होती है, तिस कारणले एक विपश्चित जनार्दन विष्णुके स्थानविष निर्वाण हो गया, दूसरा दूरते दूर ब्रह्मांडको लंघता गया, तिसको संतका संग प्राप्त भया, तिसकार ज्ञान उदय हुआ, वासना मिटिगई, अरु अज्ञान तिसका नष्ट हो गया, जैसे सूर्यके उदय हुये अंधकार नष्ट हो जाता है, तैसे अज्ञान नष्ट हो गया, वह पदको प्राप्त भया; तीसरा अज्ञानकारकै दूरते दूर भटकता है, अरु चौथा पहाड़की कंदराविषे मृग होकर विचरता है । हे रामजी ! जगत् कछु वस्तु नहीं, अज्ञानके वशते भटकते हैं, ताते अज्ञानही जगत् है, जबलग अज्ञान हैं तबलग जगत् है, जब ज्ञान उदय होता है, तब अज्ञानको नाश करताहै, तब जगतका भी अभाव हो जाता हैं । राम उवाच ॥ हे भगवन् ! यह जो मृग हुआ है, सो कहाँ कहाँ फिरा है, अरु कहाँ स्थित है, अरु कौन स्थानविषे फिरैहै सो कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । दो ब्रह्मांडको लंचते दूरते दूर चले गये थे, एक अबलग चला जाता है, पृथ्वी समुद्र वायु आकाश उसकी संविविषे फुरते हैं, यह तौ दूरते दूर चला गया है, सो हमारी आधिभौतिक दृष्टिका विषय नहीं, अरु एक ब्रह्माँडको लंघता गया था, अब इसजगतविषे पहाडकी कंदराका मृग हुआ है, सो हमारी इस दृष्टिका विषय है। राम उवाच ।। हे भगवन् ! यह दूर गये थे, अरु एक इसे जगविषे अब मृग हुआ है, तुम कैसे जाना जो आगे ब्रह्मांडविषे था, अब इस जगविषे है ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! मैं ब्रह्म हौं, जेते कछु ब्रह्मांड हैं सो मेरे अंग हैं, मुझको सबका ज्ञान है, जैसे अवयव पुरुष अपने अंगको जानता है कि यह अंग फुरता है, अरु यह नहीं फुरता तैसे मैं सबको जानता हौं, जहां जहां यह फुरता लंघना गया हैं। जो बुद्धि नेत्रकरि मैं जानता हौं, परंतु तुमको जाननेकी गम नहीं,जैसे समुद्रविषे अनेक तरंग फुरते हैं, अरु समुद्र सबको जानता है, वैसे