पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७२६

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विपश्चितशरीरप्राप्तिदर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६०७) मैं समुद्ररूप हौं अरु ब्रह्मांडरूपी मेरेविषे तरंग हैं,ताते मैं सबको जानता हौं । हे रामजी ! वह जो मृग हैं, सो दूर ब्रह्मांडविषे फिरता है, वह विपश्चित यह मृग नहीं, परंतु वह जैसा है सो सुन । हे रामजी ! एक ब्रह्मांड इस हमारे ब्रह्मांड जैसा है, एकही जैसा आकार है, एकही जैसी चेष्टा, एकही जैसा जगत् है, स्थावर जंगम सब एकही जैसे हैं, वहाँ जो देशकाल क्रियाका विचारना होता है, सो इसके समान होता है, जैसे नामरूप आकार यहां होते हैं, जैसे बिंबका प्रतिबिंब तुल्यही होता है, जैसे एकही आकारका प्रतिबिंब जलविषे होता है, अरु द्वितीयप्रतिबिंब दर्पणविषे होता है, सो दोनों तुल्य हैं, तैसे दोनों ब्रह्मांड एकसमान हैं, ब्रह्मरूपी आदर्शविषे प्रतिबिंबित होता है, तैसे इसकारणते यह मृग विपश्चित है, इसी निश्चयको धारे हुये हैं, यह अरु वह दोनों तुल्य हैं, सो पहाड़की कंदराविषे है। राम उवाच । हे भगवन् ! वह विपश्चित अब कहां है, अरु उसका क्या अचार है, अब मैं जानता हौं, कि उसका कार्य हुआ है, अरु चलिकार सुझको दिखावहु, अरु उसको दर्शन देकर अज्ञान फांसते मुक्त करहु।। वाल्मीकिरुवाच॥हे अंग। जब रामजीने इस प्रकार कहा तब मुनिशार्दूल वसिष्ठ बोलत भया ।। हे रामजी ! तुम्हरा जो लीलाका स्थान जहाँ है, तुम क्रीडा करतेहौ,तिसठौरविषे वह मृग बांधा हुआ है, तुमको तिरग देशके राजाने आनि दिया है, सो बहुत सुंदर है, इसकारकै तुमने रखा है, तिसको मंगावई, तब रामजीके सखा बालकविषे जो निकटवर्ती थे, तिनसे कहा कि तिस मृगको संभाविपे ले आवहु ॥ हे राजन् ! जब इसप्रकार रामजीने कहा, तब समाविषे मृगको ले आये, जेते कछु श्रोता समाविषे बैठे थे सो बड़े आश्चर्यको प्राप्त भये, बड़ी ग्रीवा सुंदर अरु कमलकी नाई नेत्र घासको खाता कबहूँ समाविषे खेलै, कबहूँ ठहर जावै, तब रामजीने कहा, हे भगवन्! इसको उपदेश करके जगावहु, कि हमारे साथ प्रश्न उत्तर करै, कृपा करहु जो मनुष्य होवे, अब तौ प्रश्न उत्तर नहीं करता । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! इसप्रकार उपदेश इसको लगेगा नहीं, काहेते कि जिसका कोऊ इष्ट होता है, तिसकार सिद्धता तिसको होती है, ताते