पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७२८

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विपश्चितशरीरप्राप्तिवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१६०९) रामजी आश्चर्यको प्राप्त हुये, सर्व सभा विस्मयको प्राप्त भई, तब बड़े प्रकाशको धारनेहारा विपश्चित निकसिकार ध्यानविषे जुडि गया,विप-श्चितते आदि लेकर इस शरीरपर्यंत सर्व स्मरण कारकै नेत्र खोलि दिये, वसिष्ठजीके निकट आयकार साष्टांग प्रणाम किया, अरु कहत भया॥ हे ब्राह्मण ! ज्ञानके सूर्य ! हेणके दाता ! तुमको मेरा नमस्कार है, हे राजन् ! जब इसप्रकार उसने कहा, तब वसिष्ठजीने उसके शिरपर हाथ रक्खा अरु कहा ॥ हे राजन् ! तू उठ खड़ा हो, अब तेरी अविद्या मैं दूर कराँगा, तू अपने स्वरूपको प्राप्त होगा, तब राजा विपश्चितने उठिकार राजा दशरथको प्रणाम किया, अरु कहा, हे राजन् ।। तेरी जय होवे, तब राजा दशरथ आसनते उठिकार कहत भया । हे राजन् ! तुम बहुत दूर फिरते रहे हौ, अब यहां मेरे पास बैठो, तय राजा विपश्चित बैठि गया, विश्वामित्र आदिक ऋषि बैठे थे, तिनको यथायोग्य प्रणाम करके बैठि गया, तब राजा दशरथने विपश्चितको भास करिकै बुलाया, बडे प्रकाशको धारे हुए जो विपश्चित था, इस कारणते दशरथने कहा, हे भास ! तुमतौ संसारभ्रमके लिये चिरकाल फिरते रहे हौ, थके होडगे, विश्राम करौ, अरु जो जो देश कोलकिया करी हैं, देखा है, सो कहौ, यह आश्चर्य है कि अपने मंदिरविणे सोया होवे, अरु निद्रादोष कारकै गर्त्तविषे गिरता फिरै, अरु देशदेशांतरको भटकता फिरै, यही अविद्या है । हे भास ! जैसे वनका विचरनेवाला हस्ती संकलकरि बंधायमान होवे, जैसे यह बांधा हुआ दुःख पाता है, तैसे तू विपश्चित भी था, अरु अविद्याकारकै तू जगत्के देखने निमित्त भटकता है । हे राजन् ! जगत् कछु वस्तु नहीं, अरु भासता है, वही माया है, जैसे भ्रमकारकै आकाशविषे नानाप्रकारके रंग भासतेहैं, तैसे अविद्या कारकै यह जगत् भासता है, अरु सत्यप्रतीत होता है सो है क्या, आकाशरूपही आकाशविषे स्थित, तिस आकाशविषे जो कछु तुझने देखा है, आत्मरूपी चिन्तामणिका चमत्कार साथ सो कहो ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे विपश्चितशरीरप्राप्तिर्नाम द्विशताधिकैकविशतितमः सर्गः ॥ २२१ ॥