पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७३

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योगवासिष्ठ।

पाया है, तैसे तुम भी पावहु, जैसे प्राण अपानके अभ्यास करिकै भुशुण्ड परमतत्त्वको प्राप्त भया है, तैसे तुम भी अभ्यास करिकै प्राप्त होहु, विज्ञानदृष्टि जो तुझने श्रवण करी है, तिसकी ओर चित्तको लगायकरि आत्मपदको पावहु, बहुरि जैसे इच्छा होवे तैसे करो॥ राम उवाच॥ हे भगवन्! पृथ्वीविषे तुम्हारे ज्ञानरूपी सूर्यकी किरणों के प्रकाशकरि मेरे हृदयसों अज्ञानरूपी तम दूर हो गया है, अब प्रबुद्ध हुआ हौं, अपने आनंदरूपविषे स्थित भया हौं अरु जानने योग्य पदको जानत भया हौं मानो दूसरा वसिष्ट भया हौं॥ हे भगवन्! यह जो भुशुण्डका चरित्र तुमने कहा है, सो परमविस्मयका कारण परमार्थबोधके निमित्त कहा है, तिसविषे शरीररूपी गृह रक्त मांस अस्थिका किसने रचा है, अरु कहांते उपजा है, अरु कैसे स्थित हुआ है, अरु कौन इसविषे स्थित है?॥ वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी! परमार्थ तत्त्वके बोधनिमित्त अरु दुःखक निवृत्तिअर्थ यह मेरे वचन हैं, सो सुन, अस्थि इस शरीररूपी गृहका स्तंभ है, अरु नव इसके द्वारे हैं अरु रक्त मांससे यह लेपन किया है, सो किसने बनाया नहीं, आभासमात्र है, मिथ्या भ्रमकरिकै भासता है, जैसे आकाशविषे दूसरा चंद्रमा भ्रमकरिकै भासता है, तैसे असत्यरूप शरीर भ्रमकरिकै भासता है॥ हे रामजी! जबलग अज्ञान है तबलग देह सत्य भासता है, जब ज्ञान होता है, तब देह असत्यरूप भासता है, जैसे स्वप्नकालविषे स्वप्न पदार्थ सत्य भासते हैं, अरु जाग्रतकालविषे स्वप्न असत्य भासता है, तैसे अज्ञानकालविषे अज्ञानके पदार्थ देहादिक सत्य भासते हैं, अरु ज्ञानकालविषे असत्य हो जाते हैं, जैसे बुद्बुदा जलविषे जलके अज्ञानकरिकै सत्य भासता है, जल के जानते बुदबुदा असत्य भासता है, जैसे सूर्यकी किरणोंविषे मरुस्थलकी नदी भासती है, तैसे आत्माविषे देह भासता है॥ हे रामजी! जेता कछु जगत् भासता है, सो सब आभासमात्र अज्ञानकारिकै भासता है, अहं त्वं आदिक कल्पना सब मननमात्र मनविषे फुरती है, तू कहता है, देह अस्थि मांसका गृह रचा है, सो अस्थिमांसकरि नहीं रचा संकल्पमात्र है, संकल्पकार भासता है, संकल्पके अभाव हुए देह नहीं