पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७३०

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६ वटधानोपाख्यानवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. १ १६११ ) पुत्र थे, तिनको संकल्प आनि उदय हुआ कि हम जगतुके अंतको देखें इसी संकल्पकार फिरते हैं, पृथ्वी लंचते हैं, बहुरि पृथ्वी जल आताहै, जल लंघते हैं, बहुरि आकाश आता है, बहुरि पृथ्वी जल वायुअआते हैं, बहुरि उसी भूगोलके चौफेर फिरते हैं, सो यह भूगोल कैसा है, जैसे आकाशविर्ष खेन होवे, तैसे यह पृथ्वी आकाशविषे है, इसका अध ऊ कोऊ नहीं, अरु चरण सो अध शिरका पास ऊव तिसीके चौफेर भ्रमते रहे, परंतु अपने निश्चयकार अपरका अपर जानते हैं; अरु जबलग स्वरूपका प्रमाद है तबलग जगत्का अभाव नहीं होता, जब आत्माका साक्षात्कार होता है, तब जगत् ब्रह्मरूप हो जाता हैं, जगत् कछु बना नहीं, कछुक ऊरणकारकै भासता है, सो जैसे स्वप्नविषे अज्ञानकारकै अनंत जगत्को देखता है, यह हुआ है, सो फुरणा परमब्रह्मविपे हुआ है, जो ऊरणेविष हुआ है सो भी परमब्रह्म है, अपर कछु बना नहीं, आत्मसत्ताही अपने आपविषे स्थित है, जैसे पत्थरकी शिला घनरूप होती। तैसे आत्मतत्त्वचेतनघन है, जैसे आकाश अरुशून्यताविषे कछु भेद नहीं तैसे ब्रह्म अरु जगतविषे कछु भेद नहीं, कल्पना परमब्रह्मरूप है, अरु ब्रह्मही कल्पनारूप है, इस जड़ अरु चेतनविषे कछु भेद नहीं।। हे राजन् । जिसको जगत् शब्दकार कहता हैं सो ब्रह्मसत्ताही है, न कछु उत्पन्न हुआ है, न प्रलय होता है, सर्व ब्रह्मही है, जैसे पहाडविषे पत्थरते इतर कछु नहीं, तैसे जगत् ब्रह्मसत्ताते इतर कछु नहीं, जैसे पाषाणकी पुतली पाषाणरूपही है, तैसे जगत् ब्रह्मरूपही है, एक सूक्ष्म अनुभव अणुते अनेक अणु होते हैं, जैसे एक पहाड़ते अनेक शिला होती हैं । हे राजन् । जो ज्ञानवान् पुरुष हैं, तिनको जगत् ब्रह्मरूप भासता है, अरु जोअज्ञानी हैं, तिनको नानाप्रकारका जगत् भासता है सो जगत् कछु वस्तु नहीं,परंतु जबलग संकल्प है, तबलग-जगत् फुरता है, जैसे रत्नका चमत्कार होता है। • तैसे जगत आत्माका चमत्कार है; अरु चेतन आत्माके आश्रय अनंत सृष्टि फुरती हैं, सो सृष्टि सब आत्मरूप हैं, आत्माते इतर कछु वस्तु नहीं, जो जाग्रत पुरुष ज्ञानवान हैं, तिनको ब्रह्मरूपही भासता है, जो अज्ञानी हैं, तिनको नानाप्रकारका जगतु भासता है । हे राजन! कईएक