पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७३१

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(१६१२) योगवासिष्ठ । इसको शून्य कहते हैं कि, शून्यही है, अपर कछु नहीं, अरु कई इसको जगत् कहते हैं, अरु कृई ब्रह्म कहते हैं, जो किसीको निश्चय होता है, तिसको सोई रूप भासता है, अरु आत्मरूपी चिंतामणि है; जैसा संकल्प फुरता है तैसा तैसा हो भासता है, सर्वका अधिष्ठान ब्रह्मसत्ता है, जैसा जैसा तिसविषे निश्चय होता है, तैसा तैसा होकार वही भासता है, द्रष्टा दर्शन दृश्य यह त्रिपुटी जो भासती है, सो भी ब्रह्म होकार भासती है, अपर द्वितीय कछु वस्तु नहीं अरु अपर जो भासताहै, सोई अज्ञान है, हे राजन् ! जबलग इसकी वासना नष्ट नहीं होती, तबलग-इसके दुःख भी नहीं मिटते, जव वासना मिटि जावै तब सर्व जगत् ब्रह्मरूप अपना आपही भासै, रागद्वेष किसीविषे न रहै, जैसे स्वप्नविषे नानाप्रकारकी सृष्टि भासती है, जो पूर्व स्वरूप स्मरण आता है, तौ सवरूप आप हो जाता हैं, रागद्वेष उसका मिटि जाता है, तैसे ज्ञानवान्को यह जगत् ब्रह्मरूप अपना आप भासता है, अरु समानरूप विचारते रहित होताहै, जो पूर्व अपूर्व अपरको विचारणा कै यह शुभ हैं, यह अशुभ है,अशुभका त्याग करना, यह गुणविचार है, जबलग पूर्व अपर विचार मनविष रहता हैं, तबलग जगतविष भटकता है, अरु बांधा रहता है, काहेते जी शुभ अशुभ दोनों जगविषे हैं, जब इनका विस्मरण हो जावै, संपूर्ण जगतको भ्रममात्र जानकारि आत्मपदविषे सावधान होवै तब मुक्त होवैगा, अरु इस जीवको अपनी वासनाही बंधनका कारण है, जबलग जगविषै दुःखकी वासना होती है, तबलग रागद्वेष उपजता है, तिसकार बांधा रहता है, जिनको जगतके सुखदुःखविषे रागद्वेषकी भावना नहीं उपजती, अरु वासना भी नष्ट भई है, तिनको यह जगत् ब्रह्मरूप अपना आपही भासता है, जगतविषे दुःखदायक कछु नहीं भासता, उनको सब ब्रह्म भासता है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे वटधानोपाख्यानवर्णनं नाम द्विशताधिकद्वाविंशतितमः सर्गः ॥ २२२ ॥