पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७३२

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३ विपश्चितकथावर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१६१३) द्विशताधिकत्रयोविंशतितमः सर्गः २२३. विपश्चितकथावर्णनम् । | दशरथ उवाच ॥ हे भास ! तुम चिरकालपर्यंत जगविखे फिरते रहे। हौ, जिसप्रकार तुमने चेष्टा करी है, अरु जो देश काल पदार्थ देखे हैं, सो सबही कहौ ॥ भास उवाच ॥ हे राजन् ! मैं जगत्को देखता फिरा हौ, फिरता फिरता थक गया हौं, परंतु देखनेकी जो इच्छा थी इस कारणते मुझको दुःख नहीं भासा, जो कछु मैं चेष्टा करी है, अरु जो देखा है,सो कहता हौं । हे राजन् ! मैं बहुत जन्म धारे हैं,अरु बहुतवार मृतक भया हौं, बहुतवार शाप पाया है, ऊंच नीच जन्म धारे हैं, अरु मर मरगया हौं, अरु बहुत ब्रह्मांड देखे हैं, परंतु अग्नि देवताके वरकरिकै, अरु एक वारविषे मैं वृक्ष हुआ हौं, सहस्र वर्षपर्यत फूल फल टाससंयुक्त रहा हौं, जब कोऊ काटै तब मैं दुःखी होऊ, अंतरते मन मेरा पीडा पावै, बहुरि वहाँते शरीर छूटा तब सुमेरु पर्वतपर स्वर्णका कमल हुआ, वहाँका जल पान किया, बहुरि एक देशविषे पक्षी हुआ, सौ वर्ष पक्षी रहा, बढुवार गीदड हुआ, वहाँ हस्तीने चूर्ण किया तब मृतक भया,बहुरि सुमेरु पर्वतपर मैं सुंदर मृग हुआ, देवता अरु विद्याधर मेरे साथ प्रीति करें, तब केता काल रहकर मृतक भया, बहुरि देवतोंके वनविषे मंजरी हुआ, देवियां विद्याधारियां मुझको स्पर्श करें,अरु सुगंधि लेवें, तब मैं देवतोंकी स्त्री भया, बहुरि मैं सिद्ध हुआ, मेरा वचन फुरणे लगा, बहार अपर शरीर धारा, एक ब्रह्मांड लंघि गया, बहुरि अपर बार अपर इसीप्रकार केते ब्रह्मांड मैं लंधि गया, एकब्रह्मांडविषे जो आश्चर्य देखा है सो सुनहु, एक स्त्री देखी, तिसके शरीरविषे कई ब्रह्मांड देखे, देखकर मैं आश्चर्यको प्राप्त भयो, अरु देशकाल क्रियाकार पूर्ण त्रिलोकियोंको देखता मैं विस्मयको प्राप्त हुआ, जैसे दर्पणविषे प्रतिबिंब दृष्ट आता है, तैसे मुझकोजगत् भासै, तब उसको मैं कहा हे देवी ! तू कौन है, अरु यह शरीरविषे तेरे क्या है ॥ देव्युवाच ॥ हे साधो ! मैं शुद्ध चिच्छक्ति हौं,अरु यह सब मेरे अंग हैं, मेरेविषे स्थित हैं, अरु मेरी क्या बात पूछनी है, जेता कछु जगत् देवियां विद्यारि मृतक भयो, अरू विद्याधर मेरेया,वहरि सुमेरु र