पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७३३

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( १६१४) योगवासिष्ठ। तू देखता है, सो सब चिद्रूप है, चेतनते इतर कछु अपर नहीं, अरुसबविषे ब्रह्मांड त्रिलोकी आय स्थित है, जो अपना आपही है, जो पूर्व अपने स्वभावविषे स्थित हैं, तिनको अपनेहीविखे भासते हैं, अरु अपनाही स्वरूप भासता है, अरु जो स्वभावविषे स्थित नहीं, तिनको जगत् बाहर भासते हैं, अरु आपते भिन्न भासते हैं॥हे राजन् । यह जगत् कछु बना नहीं, जैसे स्वप्नविषे नगर भासता है, जैसे गंधर्वनगर भासता है, तैसे आत्माविषे जगत् भासता है, जलविषे तरंग भासते हैं, सो जलरूप हैं, तरंग कछु इतर वस्तु नहीं होते, तैसे सब जगत् चिद्रूपविषे भासता है, सो चेतनते इतर कछु नहीं, परंतु जब स्वभावविषे स्थित होकार देखेगा तब ऐसे भासैगा, अरु जो अज्ञान दृष्टिकार देखेगा तौ, नानाप्रकारका जगत् दृष्टि आवैगा ॥ हे राजन् दशरथ ! इसप्रकार उस देवींने मुझको कहा, तब मैं वहाँते चला, आगे अपर सृष्टिविषे गया, तहां देखौं कि, सबही पुरुष रहते हैं, स्त्री कोऊ नहीं, पुरुषसों पुरुषउत्पन्न होते हैं, तिसते भी आगे अपर सृष्टिविषे गया, तहाँ न सूर्य है, न चंद्रमा है, न तारे हैं, न अग्नि है, न दिन है, न रात्रि है, जैसे चंद्रमासूर्यतारेका प्रकाश होता है, तैसे सब अपने प्रकाशकार प्रकाशते हैं, तिनको देखिकार मैं आगे अपर सृष्टिविषे गया, तहां क्या देखे कि,आकाशहीते जीव उत्पन्न होते हैं, अरु आकाशहीविषे लीन होते हैं, इकडेही सब उपजतेहैं। अरु इकट्ठही सब लीन हो जाते हैं, न वहां मनुष्य हैं, न देवता, न वेद हैं, न शास्त्र हैं, न जगत् है, इनते विलक्षणही प्रकार है । है राजन् ! इसप्रकार मैं कई सृष्टि देखी हैं, सो सुझको स्मरण आती हैं, आगे अपर सृष्टिविधे मैं गया, तहां क्या देखा कि सब जीव एकही समान हैं, न किसीको रोग है, न दुःख हैं, सब एक जैसे गंगाके तीरपर बैठे हैं ॥ हे राजन् ! एक अपर आश्चर्य देखा है सो सुन, एक सृष्टिविषे मैं गया तहां क्षीरसमुद्र मैदराचलकार मथाजाता है, एक ओरते विष्णु भगवान् अरु देवता हैं, रत्नसाथजड़ा हुआ मंदराचल पर्वत है, शेषनागे करिकै रसडीकी नई लपेटा हुआ है, मथनेके निमित्त दूसरी ओरते दैत्य लगे हैं, बडा सुन्दर शब्द होता है, तहाँ महाकौतुक देखिकर मैं आगेआया, एक