पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७३४

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विपश्चितकथावर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६१५) अपर सृष्टि देखी, तहाँ मनुष्य अरु देवता आकाशविषे उडते फिरते हैं, वृथ्वीके ऊपर मनुष्य विचरते हैं, वेद शास्त्र जानते हैं । हे राजन् । एक अपर आश्चर्य देखा, कि एक सृष्टिविषे मैं जाय निकसा तहां मदराचल पर्वत ऊपर कल्पतरु मंदार वृक्षका वन है, तिसविघे मंदरका नाम एक अप्सरा रहती थी, तहां मंदराचल पर्वतपर जायकार मैं सोइ रहा, रात्रिका समय था, वह अप्सरा मेरे कंठसे आय लगी, तब मैं जागकार देखा अरु कहा, हे सुंदरी । तैंने सुझको किसनिमित्त जगाया, मैं तौ सुखसाथ सोया था, तब अप्सराले कहा ॥ हे राजन्! मैं इसनिमित्त तुझको जगाया है, कि चंद्रमा आनि उदय हुआ है अरु चंद्रकांतमणि चंद्रमाकी देखिकार स्रवैगी, अरु नदीकी नई प्रवाह चलैगा, तिसविषे तू बहिजावैगा, इस कारणते मैं तुझको जगाया है। हे राजा दशरथ ! जब इस प्रकार उसने कहा, तब तत्कालही नदीका प्रवाह चलने लगा, तव वह प्रवाहको देखिकर मेरेको आकाशविपे ले उड़ी, पर्वतके ऊपर गंगाका प्रवाह चलता था, तिसके कांठेपर मुझको स्थित किया, सप्तवर्षपर्यंत मैं वहीं रहा, बहुरि एक ब्रह्मांडविषे गया, तहां तारा नक्षत्रचक्र सूर्य कछुन था, तिसको देखिकर मैं आगे गया, इस प्रकार अनंत ब्रह्मांड मैं देखता फिरा हौं । हे राजन्! ऐसा देश कोऊ न होवैगा, अरु ऐसी पृथ्वी कोङ न होवैगी, ऐसे नदी पहाड़ कोई न होवेंगे जिसको मैंने न देखा होगा, अरु ऐसी चेष्टा कोऊ न होवैगी, जो मैंने न करी होवैगी, कई शरीरके सुख भोगे हैं, कई दुःख भोगे हैं, वन कंदरा अरु गुप्तस्थान मैं सब फिर देखे हैं, परंतु अग्नि देवताके वरको पायकार ।। हे राजन् । फिरता फिरता मैं थक गया तौ भी आगे चला जाऊ, अनेक ब्रह्मांड अविद्यक मैं देखे हैं, अरु अंत अब आया है, कि यह जगत् भ्रममात्र है, अरु मैं शास्त्र सुने हैं, कि यह जगत् है नहीं, यद्यपि है नहीं तो भी दुःखको देता है, जैसे बालकको अपने परछायेविचे वैताल भासता है, तैसे यह जगत् अविचार कारकै भासता है, अरू विचार कियेते निवृत्त हो जाता है, अरु एक आश्चर्य सुन, एकब्रह्मांडविड़े मैं गया, तहाँ अहाआकाश था, तिस महाआकाशसे गिरा, पृथ्वीऊपर आनि पडा, तब तहाँ सोई गया महागाढ