पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७३६

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स्वर्यमाहात्म्यवृत्तान्तवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६१७) लेउड़ा, जब हम उड़े तब पाछेते वह शवत्रितक पृथ्वीपर गिरा तिसके गिरनेकार सुमेरु जैसे पर्वत पातालको चले गये, महाबडा शरीर गिरा जैसे सैकड़ों सुमेरु गिरें तैसे गिरा, अरु मंदराचल मलयाचल अस्ताचलते लेकर जो पर्वत थे सो अधको चले गये अरु पृथ्वी जर्जरीभावकार फट गई, टोए पड़ि गये, अरु तिसके शरीरके नीचे वृक्ष मनुष्य दैत्य स्थावर जंगम जो आये सो सब नष्ट हो गये बडा उपद्रव आनि उदय हुआ तिसके शरीरसाथ सर्व दिशा पूर्ण हो गईं अरु अंग उसके ब्रह्मांडते भी पार निकस गये । हे राजन् दशरथ ! जब इसप्रकार मैं भयानक दशा देखी, तब अपने इष्ट अग्निको कहा ।। हे देव ! यह उपद्रव क्योंकार हुआ है, अरु यह सब कौन हैं, सो ऐसा शरीर पडा आगे तौ कोऊ देखा सुना नहीं, तब अग्निने कहा, तू अब तूष्णीं हो यह सब वृत्तांत मैं तुझको कहौंगा, इसको तू शान्त होनेदे एता काल तू विलंब करु, इस प्रकार अग्नि कहता था,कि देवता विद्याधर गंधर्व सिद्ध जेते कछु स्कर्गके वासी थे सो सब आनिकार मिल स्थित हुए अरु विचार करत भये कि, यह उपद्रव प्रलयकालविना हुआ है, इसके नाश करनेको देवीजीकी आराधना करिये ॥ हे राजन् ! ऐसे विचार कारकै देवीजीकी स्तुति करने लगे । हे देवी शववाहिनी काकदेशी चंडिका हम तेरी शरण आये हैं, इस उपद्रवते हमारी रक्षा करहु, ऐसे कहिकार स्तुति करने लगे ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे महाशववृत्तांतवर्णनं नाम द्विशताधिकचतुर्विंशतितमः सर्गः ॥ २२४ ॥ दिशताधिकपंचविंशतितमः सर्गः २२५. स्वयंमाहात्म्यवृत्तान्तवर्णनम् ।। विपश्चित उवाच ॥ हे राजन् दशरथ ! वह देवता स्तुति कारकै शवकी ओर देखेते भये, कि सप्तद्वीप इसके उद्रविषे समाय गये हैं, अरु भुजाकारकै सुमेरु आदिक पर्वत-आच्छादित होगये हैं, अपर अंग उसके ब्रह्मांडको भी लंघि गये हैं, अरु साथही पातालको गये हैं, तिनकी मर्यादा १०२