पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७३९

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(१६२०) योगवासिष्ठ । हमको शूल चुभते हैं, जैसे फलको कंटक चुभते हैं, जैसे विषयके अभासरूपी हमको कंटक चुभते हैं । हे रामजी ! शोकवान हुए, अरु कहते भये, हा कष्ट ! हा कष्ट । हैं, इसप्रकार विषय स्मरण करके देवता शोक करते हैं, अरु गण वहां शवको भोजन करते हैं, जेते कछु अंग तिसके थे सो गणनने भोजन कार लिये, तिसकार अघाय रहे, अरु कछु मेदाका शेष रह गया, अरु सुगंध बहुत तब तिसका जो पिंड रहा, सो धराकी पृथ्वी हुई, तिसकारे तिस पृथ्वीका नाम मेदिनी हो गया; अरु मोटे जो हाडे हुए होते हैं, तिसके सुमेरु आदिक पर्वत हुए, तब ब्रह्माजीने देखा कि, सब विश्व शून्य जैसा हो गया है, ताते बहार मैं चौं, तब पूर्वकी नई सृष्टिको रची, जगत्का सब कर्मव्यवहार चलने लगा । इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे स्वयंमाहात्म्यवृत्तांतवर्णनं नाम द्विशताधिकपचविंशतितमः सर्गः ॥ २२५ ॥ द्विशताधिकषड्शितितमः सर्गः २२६. । मच्छरव्याधवर्णनम् । विपश्चित उवाच ॥ हे राजन् । जब यह कर्म हो रहा था, तब मैं अपने इष्ट देवतासों प्रश्न किया, तोते वाहनपर आरूढ हुए मैं कहा ॥ हे महादेव ! सर्व जगत्के ईश्वर अरु जगतके भोक्ता ! यह सब कौन था अरु कहाँ स्थित था अरु किस प्रकार गिरा हैं ॥ अग्निरुवाच ॥ हे। राजन् ! अनंत त्रिलोकी जिसका आभास हैं, तिसविषे वृत्तांत वर्णन होवैगा, एक त्रिलोकीविषे इस सबका वृत्तांत नहीं होता, ताते सुन ॥ हे राजन् ! एक परप आकाश है, सो चिन्मात्र पुरुष है, सर्वज्ञ है, अनामय है; अरु अनंत हैं, सो आत्मतत्त्व केवल अपने आपविषे स्थित है, तिसका जो आभास है, सो संवेदन फुरणा है, सोई किंचन होता है, सो - तिसके किसी स्थान विषे. फुरता है तब ऐसे भावना होती है, कि मैं तेज अणु हौं, तिस भावनाके वशते अणु जैसी हो जाती है, जैसे कोऊ पुरुष सोया है, अरु स्वप्नमें आपको मार्गविषे चलता देखता है, जैसे तुम