पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७४

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परमार्थयोगोपदेशवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

पाता॥ हे रामजी! स्वप्नविषे जो देह धारिकरि दिशा तट पर्वत तू देखता फिरता है, जाग्रत‍्विषे वह तेरा देह कहां जाता है जो कछु देह सत्य होता तो जाग्रत‍्विषे भी रहता, अरु मनोराज्य करिके स्वर्गको जाता है, अरु सुमेरुविषे भ्रमता है, भूमिलोकविषे फिरता है, तब यह देह तेरा कहां होता है॥ हे रामजी! इन स्थानोंविषे जैसे मनका फुरणा देह होकरि भासता है, सो असत्यरूप है, तैसे यह शरीर मनके फुरणेमात्र है, ताते असत्य जानहु, यह मेरा धन है, यह मेरा देह है, यह मेरा देश है, इत्यादिक कल्पना मनकी रची हुई है, सबका बीज चित्त है॥ हे रामजी! इस जगतको दीर्घ कालका स्वप्न जान, अथवा दीर्घ चित्तका भ्रम जान, अथवा दीर्घ मनोराज्य जान और वास्तवते जगत् कछु नहीं, जब अपने वास्तव परमात्मस्वरूको अभ्यासकरि जानता है, तब जगत् असत्यरूप भासता है॥ हे रामजी! मैंने पूर्व भी तुझको ब्रह्माजीके वचनोंकरि कहा है, कि जगत सब मनका रचा हुआ है, ताते संकल्पमात्र है, चिरकालका जो अभ्यास हो रहा है, तिसकरि सत् भासता है, जब दृष्ट पुरुष प्रयत्नकरि आत्मअभ्यास होवै, तब असत्य भासै॥ हे रामजी! जो भावना इसके हृदयविषे दृढ होती है, तिसका अभाव भी सुगम नहीं होता, जब उसकी विपर्ययभावनाका अभ्यास करिए, तब उसका अभाव हो जाता है कि, यह मैं हौं यह और है, इत्यादिक कलना हृदयविषे दृढ हो रही है, जब इसकी विपर्ययभावना होवै, अरु आत्मभावना करिये, तब वह मिटि जावै, सर्व आत्माही भासै॥ हे रामजी! जिसकी तीव्र भावना होती है, वहीरूप फल उसका हो जाता है, जैसे कामी पुरुषको सुंदर स्त्रीकी कामना रहती है, तैसे इसको आत्मपदकी चिंता रहै, तब वहीरूप होता है, जैसे कीट भुंगी हो जाता है, जैसे दिनविषे व्यापारका अभ्यास होता है रात्रिको स्वप्नविषे भी वही देखता है, तैसे जिसका इसको दृढ अभ्यास होता है, सोई अनुभव होता है, जैसे आकाशविषे सूर्य तपता है, अरु मरुस्थलविषे जल होकरि भासता है, सो जलका अभाव है, तैसे पृथ्वी आदिक पदार्थ भ्रमकरिकै भावते रहित भावरूप भासते हैं, जैसे नेत्र दूरखने करिकै आकाशविषे तरुवरे मोरपुच्छवत् भासते हैं, तैसे अज्ञान