पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७४०

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मच्छरव्याधवर्णन–निर्वाणशकरण, उत्तराई ६. (१६२१) स्वप्नविषे आपको पौढे देखहु तैसे चिद् संवेदन आपको अणु जानत भई है, जैसे फुरणा ब्रह्माको हुआहै, तैसे धूड़के किणकेका हुआहै,अधिछानविषे ऊरणा तुल्य हुआ है,तब उस अणुको शरीरकी भावना होती है, जो अपने साथ शरीर देखती है, शरीरके होनेकर नेत्र आदिक इंद्रियां घन होती हैं, तब शरीर अरु इंद्रियोंसाथ आपको मिला हुआ जानता है, अपना आप जानकारि तिनको ग्रहण करता है, इंद्रियोंकार विषयको ग्रहण करता है, तब वही चिद्रूप जीव प्रमादकारकै आधाराधेय भावको मानता हैं, अरु अधिष्ठान सत्ताविषे कछ हुआ नहीं, अद्वैतसत्ता ज्योंकी त्यों अपने आपविषे स्थित है, जैसे स्वप्नविषे प्रमादकारिकै आपको किसी गृहविषे बैठे देखता है, तैसे यहाँ प्रमादकारिकै आधाराधेयभावको देखता है, प्राण अरु मन अहंकारको धारता है, अरु जानता है, मेरे माता पिता हैं, अरु मैं अनादिका जीव हौं, अरु अपना शरीर जानकारे आगे पांचभौतिक जगतशरीरको देखता है, अपने फुरणेके अनुसार है, अंग इसीप्रकार जो आदिक शुद्ध चिन्मात्र तत्त्वविषे ऊरणा हुआ, तब चित्तकला ऊरी, यह आपको तेज अणु जानत भई, तिसविषे अहंवृत्तिकार अहंकार हुआ, अरु निश्चयात्मक बुद्धि हुई, चैत्यतारूप चित्त हुआ,संकल्पविकल्परूप मन हुआ, यह उत्पत्ति होकर बहुरि तन्मात्र उत्पत्ति भई, फेरि तिनके इच्छाद्वारा शरीर इंद्रियां उत्पन्न भई, बहुरि तिन इंद्रियोंके वशते देखनेकी इच्छा हुई, तिस संवितकालविषे तब आगे दृश्य भासि आई,तब संवित्शक्ति आपको प्रमाददोषकरिकै दैत्य जानत भई, कि मैं दैत्य हौं, अरु साथही तिसके अपने माता पिता और आये; कि यह मेरी माता है, यह पिता है, यह कुल है, सो चिरकालकी चली आती है,इसप्रकार एक दैत्य अहंकारसहित विचरने लगा,तब एक कुटीविषे एक ऋषि बैठा था, तिस कुटीकी ओर दैत्य गया, सो किस प्रकार गया, कि उसकी कुटीका चूर्ण करत भया, जब ऋषिके निकट गया तब ऋषिने कहा, हे दुष्ट1 तुझने क्या चेष्टा ग्रहण करी है, अब तु मारे जावैगा, अरु मच्छर होवैगा ॥ हे विपश्चित। तिस ऋषिके शापरूपी अग्निकार उसका शरीर भस्म हो गया, तब उसकी निराकार चेतनसंवत्