पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

भौकी इच्छा होवै तौ न इसके करणेकार अपने हाथकर हृदयान्तरस्वप्नमहाप्रलयवर्णन–निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६, (१६२३) आरंभ करता है, इस चेष्टाकरि नरकको प्राप्त होवैगा, ताते तू किसी जीवको दुःख न दे, अरु जिन भोगके निमित्त तू यह चेष्टा करता है। सो भोग बिजुलीके चमत्कारवत् हैं, जैसे मेघविषे बिजुलीका चमत्कार होता है बहुरि मिटि जाता है, तैसे भोग होयकार मिटि जाताहैं, अरु जैसे कमलके पत्र ऊपर जलकी बुन्द ठहरती है,सो उसकी आयुर्बल कछु नहीं, क्षण पलविषे वायुकारिकै गिर पडती हैं, तैसे इस शरीरकी आयुर्बल कछु नहीं, जैसे अंजलीविषे जल पाया ठहरता नहीं; तैसे थौवनअवस्था चली जाती है, क्षणभंगुररूप वृक्ष है, अरु यौवन असार है, तिसविर्षे भोगना क्या है; इनकार शांति कदाचित नहीं होती, जो तुझको शौतिकी इच्छा होवै तौ निर्वाणका प्रश्न कर, तब तू दुःखते मुक्त होवे, अपने हिंसा कर्मको त्यागि दे, इसके करणेकार नरकको चला जावैगा कदाचित् भी शांति तुझको न प्राप्त होगी, तू अपने हाथकर अपने चरणपर कुल्हाडा क्यों मारता है, अरु अपने नाशके निमित्त तू विषका बीज क्यों बोता है, इस कर्मकार तू संसारःखविषे भटकता फिरेगा, शांतिवान् कदाचिद न होवैगा, ताते सो उपाय कर जिसकरि संसारसमुद्रते पार होवैगा ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्र० मच्छरव्याधवर्णन नाम द्विशताधिकषडिंशतितमः सर्गः ॥ २२६॥ द्विशताधिकसप्तविंशतितमःसर्गः २२७, हृदयांतरस्वमहाप्रलयवर्णनम् । अग्निरुवाच ॥ हे राजन् ! जब इसप्रकार ऋषीश्वरने उस वधिकको कहा, तब वधिकने धनुष अरु बाणको डारि दिया अरु बोला, हे भगवन् । जिसप्रकार संसारसमुद्रते पार होऊ सो उपाय कृपा कारकै मुझको कहौ, परंतु कैसे होवैजो नदुःसाध्य होवै, न मृदु होवै; मृदु कहिये जो अल्प भी न होवै,न दृढ होवै॥ऋषीश्वर उवाच ॥ हे वधिक ! मनको एकाग्र करना इसका नाम शम है, अरु इंद्रियोंको रोकना इसका नाम दम है, सोई मौन है, यह दोनों जो हैं तप अरु मौन, मनको एकाग्र