पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७४३

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( १६२४), योगवासिष्ठ । करना इसकार अंतःकरण शुद्ध होता हैं, ' अरु अंतःकरणशुद्धविषे आत्मज्ञान उपजता हैं, तिस आत्मज्ञानकारि संसारभ्रम निवृत्त होजाता है, अरु परमानंदकी प्राप्ति होती है ॥ अग्निरुवाच ॥ हे राजन् ! इस प्रकार जब ऋषीश्वरने कहा, तब वह वधिक उठ खडा हुआ, प्रणाम कारकै जाय तप करने लगा, कैसा तप जो इंद्रिय संयमविषे राखी, अरु जो अनिच्छित यथाशास्त्र आनि प्राप्त होवे, तिसका भोजन करना अरु सबै क्रियाका अंतरते मौनव्रत धरना, जब केता काल उसको तप करते व्यतीत भया, तब अंतःकरण शुद्ध हुआ,ऋषीश्वरके निकट आय: करि प्रणाम कर बैठ गया अरु कहत भया । वधिक उवाच ॥ हे भगवन् ! बाहर जो इश्य है सो अतर किसप्रकार प्रवेश करती है, अरुस्वप्नविषे सृष्टि जो भासती है, सो अंतरकी बाह्यरूप हो भासती है, सो कैसे भासती है,यह कृपा कारकै कहौ॥ऋषीश्वर उवाच ॥ हे वधिक ! यह बड़ा गूढ प्रश्न तुमने किया है, यही प्रश्न प्रथम मैं भी संदेहसंयुक्त होकर गणपतिसे किया था, तब जो कछु उनके कहनेकार मैं ग्रहण किया है सो सुन ॥ हे वधिक ! एक समय इसी संदेहके दूर करनेका उपाय मैं करत भया,पद्मासन बाँधिकार बाह्य इंद्रियों को रोका, रोकिकार मनविषे जोडी अरु मन बुद्धि आदिकको पुर्यष्टकाविषे स्थित किया, स्थित कारकै पुर्यधृकाको शरीरते विरक्त किया, अरु आकाशविचे निराधार तिसको ठहरावत भया; जब विलक्षण हुआ चाहै तब विलक्षण हो जावै, अरु जब शरीरविषे व्यापा चाहे तब व्यापि जावै ॥ हे वधिक ! इसप्रकार जब मैं योगधारणा कारकै पूर्ण भया, तब एक कालमें एक पुरुष हमारी कुटीके पास सोया था, तिसके श्वास अंतर बाहर आते जाते थे, तिसको देखिकर मैंने यह इच्छा करी कि, इसके अंतर जायकार कौतुक देखौं कि, अंतर क्या अवस्था होती है, ऐसे विचार कारकै मैं पद्मासन बांधा, अरु योगकी धारणा करके उसके श्वासमार्गसों मैं अंतर प्रवेश जाय किया, जैसे उधू उंचता होवै अरु उसके श्वासमार्गते जैसे सर्प जाय प्रवेश करे, तैसे मैं जाय प्रवेश किया, तिसके अंतर अपने अपने रसको ग्रहण करनेदारी नाड़ियां सुझको दृष्ट्र आई, कई