पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७४५

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(१६२६) योगवासिष्ठ । विषे भी जो सत्यप्रतीत है, सोई प्रमाद है,इनदोनोंविषे भेद कछु नहीं काहेते कि जाग्रत् अरु स्वप्रका अधिष्ठान चेतनसत्ता परब्रह्म हैं, तिसके प्रमादकार इसको प्राणके साथ संबंध हुआ, जब प्राणसाथ चित्तसंवेदन मिली, तब तिस ऊरणेरूपके एते नाम भये, तिसका नाम जीव हुआ, मन हुआ, चित्त बुद्धि अहंकार आदिक सब तिसके नाम हैं, वही सवेदन जो बाह्यरूप हो फुरती है, तब जाग्रतुरूप जगत् हो भासता है, पंच ज्ञान इंद्रियां, पंचकर्म इंद्रियां, चतुष्टय अंतःकरण यह चौदह इंद्रियाँ अपने अपने विषयको ग्रहण करती हैं, इसका नाम जाग्रत है, जब चित्तस्पंद निद्वादोष कारकै अंतर्मुख फुरता है, तब नानाप्रकारकी स्वप्नसृष्टि देखता है, निद्रादोष कारकै तिस कालमें वही जाग्रतरूप हो भासता है, अधिष्ठान जो आत्मसत्ता हैं, जब संवेदन तिसकी ओर फुरती है, बाह्य विषयके फुरणेते रहित अफ़रण होती है, तब न जाग्रत् भासती है, न स्वप्न भासता है, केवल आत्मसत्ता निर्विकल्प शेष रहती है ॥ है। वधिक ! मैं विचार देखा, कि जगत् अपर कुछ वस्तु नहीं, ऊरणका नाम जगत् है, जब चित्त संवेदन ऊरणारूप होती है, तब जगत् भासता है, अरु जब चित्तसंवेदन फुरणेते रहित होती हैं, तब जगतकल्पना मिटि जाती है, ताते मैंने निश्चय किया है, कि वास्तव केवल चिन्मात्र है, जगत् कछु वस्तु नहीं, मिथ्या कल्पनामात्र है ॥ हे वधिक 1 जग भावना त्यागिकार अपने स्वरूपविषे स्थित होडु, अब वही वृत्तांत बहुरि सुन, जब उसके अंतर स्वप्न जाग्रत् अवस्था देखी तब मैंने यह इच्छा करी कि सुषुप्त अवस्था भी देखौं, अरु विचार किया कि सुषुप्ति नाम हैं प्रलयका, जहाँ द्वष्टा दर्शन दृश्य तीनोंका अभाव हो जाता है, परन्तु जहाँ मैं देखनेवाला हुआ,तहाँ महाप्रलय कैसे होवैगी, अरु जो मैं जाननेवाला न हो तब सुषुप्तिको कौन जानैगा ॥ हे वधिक । तब मैं विचार देखा, कि अपर सुषुप्ति कोऊ नहीं, जहाँ चित्तकी वृत्ति फुरती नहीं तिसीका नाम सुषुप्ति है, ऐसे विचार करिकै चित्तको ऊरणेते रहित किया तब सुषुप्ति तिसकी देखी, तहाँ क्या देखा सो सुन, न कोऊ वहां अहं त्वं शब्द है, न शुभ है, न अशुभ है, न जाग्रत स्वप्न हैं, न सुषुप्तिकी