पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(९५६)
योगवासिष्ठ।

करिकै जगज्जाल भासते हैं॥ हे रामजी! यह जगत् सब आभासरूप है, स्वरूपके प्रमादकरिकै भय अरु दुःखको प्राप्त होता है, जब स्वरूपको जानता है, तब भ्रमभयदुःखते रहित होता है, जैसे स्वप्नपुरविषे चित्तके भ्रम करिके सिंहिणीते भय पाता है, जब जाग्रत‍्स्वरूप चित्त आता है, तव सिंहका भय निवृत्त हो जाता है, तैसे आत्मज्ञानकरिकै निर्भय होता है, जब वैराग्य अभ्यास करिकै निर्मल शुद्ध आत्मपदको प्राप्त होता है, तब वहरि क्षोभको नहीं प्राप्त होता, रागद्वेषरूपी मल इसको नहीं स्पर्श करता, जैसे तांबा पारसके स्पर्श करिकै स्वर्ण होता है, तब तांबेभावको नहीं ग्रहण करता, तैसे बहुरि मलीन नहीं होता, अहं त्वं आदिक जेता कछु जगत् भासता है, सो सब आभासमात्रही है॥ हे रामजी! प्रथम सत्य असत‍्को जानै, असत्यका निरादर करै, अरु सत‍्का अभ्यास करै, तब चित्त सर्व कलनाते रहित होता है, अरु शांतपदको प्राप्त होता है, जो तत्त्वज्ञानकरि सम्यक‍्दर्शी हुआ है, तिसको जगत‍्के इष्ट पदार्थ पायेते हर्ष नहीं होता, अरु अनिष्टके पाएते शोक नहीं होता, न किसीकी स्तुति करता है, न किसीकी निंदा करता है, अंतरते शीतल शांतरूप हो जाता है, जब कोऊ बांधव मृतक हो गया है, तब तिसकरि तपायमान क्यों होना, सो तौ मरणेकाही था, जब अपना मृत्यु आवै, तब अवश्य शरीर छूटना है, वृथा क्यों तपायमान होना, जब संपदा आनि प्राप्त होवै, तब उसकरि हर्षवान् नहीं होता, काहेते जो कछु भोगना था, हर्ष किसकरि होना, अरु दुःख आनि प्राप्त होवै, तब क्यों शोक करना, शरीरका व्यवहार सुखदुःख आता जाता है, यह अमिट है, जब अपना किया कर्म उत्पन्न होता है, तब भी शोक क्यों करना॥ हे रामजी! जो सत्य है सो असत्य नहीं, जो असत्य है, सो सत्य नहीं, बहुरि रागद्वेष किसनिमित्त करना जिसको ऐसा निश्चय हुआ है, किन मैं हौं, न जगत है, न पृथ्वी है, तो भी शोक किसका करना, अरु जब देहते अन्य हौं, चेतन हौं चेतनका तौ नाश नहीं, तब शोक किसनिमित्त करना॥ हे रामजी! दुःख तो किसीप्रकार नहीं, जबलग विचार नहीं, तबलग दुःख होता है, विचार कियेते दुःख कोई नहीं, सम्यक‍्दर्शी जो मुनीश्वर है, सो