पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७५१

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( १६३२) योगवासिष्ठ । संसारसुखनिमित्त यत्न करते हैं, सो महामूर्ख हैं, अरु जिनके निमित्त यत्न करते हैं, सो सुख भी अरु सुखके देनेहारे भी सब बहते जावें, तैसे सप्त ऋषीश्वर बहते जावें ॥ हे वधिक ! इसप्रकार महाप्रलय होती तिसके स्वप्नविषे मैं देखता भया । इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे हृदयांतरस्वमहाप्रलयवर्णनं नाम द्विशताधिकसप्तविंशतितमः सर्गः ॥२२॥ द्विशताधिकाष्टाविंशतितमः सर्गः २२८. हृद्यान्तरप्रलयाग्निद्वारवर्णनम् । वधिक उवाच ॥ है मुनीश्वर ! यह जो महाप्रलय तुमने कही, जिसविधे ब्रह्मादिक भी बहते जावें,सो ब्रह्मा विष्णु रुद्रादिक तौ स्वतंत्र हैं, ईश्वर हैं, यह परतंत्र हुए बहते जाते तुम कैसे देखे, अंतर्धान क्यों न हुये ।। मुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक ! यह.जो प्रलय हुई है सो एक क्रमकारकै नहीं हुई, जब क्रमते होवै तब यह ईश्वर समाधिकारिकै शरीरको अंतधन कार लेते हैं, परंतु अंतर्धान होनेका जल चढ़ि जाता है, उनका कछु नियम नहीं, काहेते कि यह जगत् भ्रमरूप है, इसविषे क्या आस्था करनी है, अरु स्वमविषे क्या नहीं बनता,सभी बन जाता है, स्वप्नभ्रांतिकारकै विपर्यय भी होते हैं, इसके लिये उनको बहते देखा है। व्याध उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! जब वह स्वभ्रम था, तौ तिसका क्या वर्णन करना ॥ मुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक ! तेरे ताई इसको समानता अर्थ कहता हौं, ताते सुन, स्थावर जंगम जगत बहता देखा, साथही मैं बहता जाऊ अरु जलकी लहरी उछलें, इन तरंगविषे मैं उछलता हौं, परंतु मुझको कष्ट कछु न होवै, तब मैं बहता बद्दता एक किनारे जाय लगा, तिसके पास एक पर्वत था, तिसकी कैदराविषे मैं जाय स्थित भया, तहां देखत भया, कि जीव बहते हैं, अरु जल भी सूखता जाता है, तब जलके सूखनेकरि चीकड़ हो गया, किसी ठौरविषे जल रहा, तिसविणे कई डूबते दृष्ट आवें, ब्रह्माके हंस दृष्टआवै, कहूँ यमके वाहन,कहुँ विष्णुके वाहन गरुड दृष्ट आवै, चीकडविषे पहाडकी नाईं डूबे दृष्ट आवें,