पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७५२

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हृदयान्तरप्रलयाग्निदाहवर्णन-निर्वाणकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६३३ ) कहूँ इंद्रके हस्ती, कहूँ विद्याधर दृष्ट आवें, इनते आदि लेकर वाहन चीकडविषे डूबते दृष्ट आवें, देवता सिद्ध गंधर्व लोकपाल हृष्ठ आये, देखिकर मैं आश्चर्यवान् हुआ ॥ हे वधिक ! इसप्रकार देखताहुआ मैं पहाड़की कंदराविषे सोय गया, तब मुझको अपनी संविविषे स्वप्न आया, तिस स्वप्नविषे मुझको चंद्रमा सूर्य आदिक नानाप्रकार भूत जलते दृष्ट आवें, नगर पत्तन जलते हैं, जगत् बडे खेदको प्राप्त हुआ है, तब वहाँ रात्रि हुई, तहां मैं सोया हुआ अपर स्वप्नको देखत भया, दूसरे दिन तिसविषे मैं बहार जगत्को देखत भया, सूर्य चंद्रमा देश पत्तन नदियों समुद्र मनुष्य देवता पशु पक्षी नानाप्रकारकी क्रियासँयुक्त दृष्ट आने लगे, अरु षोडश वर्षका शरीर मैं आपको देखत भया,अपने पिता अरु माता मुझको दृष्ट आवै, उनको मैं माता पिता जानौं, अरु मुझको वह अपना पुत्र जानें, स्त्री कुटुंब बांधव समस्त मुझको दृष्ट आने लगे, अरु वह जो मैं कैसा, बोधते रहित अरु तृष्णासहित अंहंममका अभिमान आनि फुरा, तब एक ग्रामविषे मेरा गृह था, तिसृविषे हम सब कुटी बनाई, तिसके चौफेर वूटे लगाये, तहां मैं एक आसन बनाया, तहाँ कमंडलु अरु माला पडी हैं, मैं ब्राह्मण था, मुझको धन उपजानेकी इच्छा भई, जो कछु ब्राह्मणका आचार चेष्टा है, सो मैं करौं, बाहिर जायकार ईंटें काष्ठ ले आऊं, आनिकार कुटी बनाऊ, वह चेष्टा हमारी होने लगी, शिष्य सेवक हमारी पूजा करें, यथायोग्य मैं उनको आशीर्वाद करौं, इसप्रकार गृहस्थाश्रमविषे मैं चेष्टा करौ, अरु मुझको यह विचार उपजे, कि यह कर्तव्य है, इसके करणेकार भला होता है, नदियाँ अरु तालविषे स्नान करौं, गऊकी टहल करौ, आये अतिथिकी पूजा करी ॥ हे वधिक ! इसप्रकार चेष्टा करता मैं सौ वर्षपर्यंत रहा, तब एक कालमें मेरे गृहविषे मुनीश्वर आया, प्रथम उसको मैं स्नान कराया, बहुरि भोजनकारि तृप्त किया, अरु रात्रिके समय उसको शय्याऊपर शयन कराया, इस प्रकार उसकी टहल की रात्रिको वात्त चर्चा करने लगे, तिसविषे मुझको उसने बड़े पर्वत केंदरा अरु सुंदर देश स्थान चित्तके मोहनेहारे सुनाये, अरु नानाप्रकारके स्वाद सुनाये, अरु कहने लगा, कि १०३