पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

( १६३४) योगवासिष्ठ । हे ब्राह्मण ! जेते कई सुंदर स्थान अरु संवाद तुझको सुनाये हैं, तिनविघे सार चिन्मात्ररूप है, ताले सब चिन्मात्रस्वरूप है, सब जगत् तिसका चमत्कार है, आभास किंचन है, तिसते इतर वस्तु कछु नहीं, ताते हे ब्राह्मण ! उसी सत्ताको ग्रहण करु, सो सत्ता सबका अनुभवरूप है, अरु परमानंदस्वरूप है, तिसविषे स्थित होहु ।। हे वधिक ! जब इसप्रकार उस मुनीश्वरने मुझको कहा, तब आगे जो मेरा मन योगकार निर्मल था, तिस कारणते उसके वचन मेरे चित्तविषे चुभि गये, अपने स्वभावसत्ताविप मैं जाग उठा, तब क्या देखौं कि सब मेराही संकल्प मुझसों भिन्न कोऊ नहीं, मैं तौ मुनीश्वर हौं, यह स्वप्न पाया था, मैं जागिकार देखौं, तब उसी पुरुषका स्वप्न था, तब मेरे चित्तविषे आई। कि किसी प्रकार इसके चित्तते बाहर निकसौं अरु अपने शरीरविषे जाय प्रवेश करौं, तब बहुरि विचारा, कि यह जगत् तौ उस पुरुषका व है, वही पुरुष विराट् है, जिसके स्वप्नविषे यह जगत् है, परंतु तिस पुरुषको अपने विराट्स्वरूपका प्रमाद है, तिसकारिकै जैसा वपु हमारा बना है, तिसके स्वप्नविषे वह भी तैसा एक विराट्ते इतर बनि पडा है, बार उस विराट्को कैसे जानिये, जो उसके चित्तसों निकसि जावै ॥ हे वधिक ! इसप्रकार विचार कारकै मैं पद्मासन बांधा, अरु योगकी धारणा करी, उस विराट् स्वरूपके शरीरको देवता भया, देखिकर जहाँ चित्तकी वृत्ति फुरती थी, तिसके साथ मिला, अरु प्राणके मार्गते निकसिकरि अपनी कुटीको देवता भया, बहुरि तिसविषे मैं अपने शरीरको पद्मासन देखत भया, तिसविर्षे प्रवेश कारकै नेत्र खोले, तब अपने सन्मुख शिष्य बैठे देखे, अरु वह पुरुष सोया था, तिसको देखिकार एक मुहूर्त व्यतीत भया, तब मैं आश्चर्यवान हुआ, कि भ्रमविषे क्या चेष्टा दीखती है, यहां एक मुहूर्त व्यतीत भया है, अरु वहाँ मैं सौ वर्षका अनुभव किया है, बडा आश्चर्य हैं, कि भ्रमकारके क्या नहीं होता, बहुरि मेरे मवविद्दे उपजी कि उसके चित्ततिषे प्रवेश करके कछु अपर कौतुक भी देखौं, तब बहु प्राणके मार्गसों उसके चित्तविषे प्रवेश किया, तब क्या देखौं जो आगला कल्प व्यतीत हो गया है, अरु