पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

( १६३६ ) यौगवासिष्ठ । उसका ज्ञान था, वह प्रमादी था, तुम तौ जागृत होकरके उसका स्वप्न देखा, उसके हृदयविषे पहाड कहते आया, अरु नदियां वृक्ष नानाप्रकारके भूतजात अरु पृथ्वी आकाश वायु जल अग्नि आदिक विश्वकी रैंचना कहांते आई, वह क्या थे, यह संशय मेरा दूर करहु, अरु जो तुम कहौ अपने स्वप्नविषे तू भी अपनी सृष्टि देखता है । हे भगवन् ! हमको जो स्वप्न आता है, तिसको हम अपने स्वरूपके प्रमादकर देखते हैं, अरु तुमने जागृत होकार देखा है, सो कैसे देखा ? ॥ सुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक ! प्रथम जो मैं देखा था, सो आपको विस्मरण कारकै तिसके हृदयविषे जगत् देखा था, बार दूसरी बार जो देखा था सो आपको जानकर जगत् देखा था, सो क्या वस्तु हैं, श्रवण कर ॥ हे वधिक ! जो वस्तु कारणते होती है सो सत्य होती है। अरु कारणविना भासती है सो मिथ्या होती है, अरु मुझको सृष्टि जो उसके स्वप्नविषे भासी सो कारणविना थी, काहेते कि कारण दो प्रकारका होता है, एक निमित्तकारण हैं, जैसे घटका कारण कुलाल होता है, अरु दूसरा समवायिकारण है, जैसे घट मृत्तिकाका होता है, दोनों कारणकार उत्पन्न होवै सो सकारण पदार्थ कहता है, सो आत्मा दोनों प्रकार जगत्का कारण नहीं, आत्मा अद्वैत है, ताते निमित्तकारण नहीं अरु समवायि कारण इसते नहीं, कि अपने स्वरूपते अन्यथाभाव नहीं हुआ, जैसे मृत्तिका पारणमीकार घट होता है, तैसे आत्माका परिणाम जगत नहीं, आत्मा अच्युत है अरु वह जगत् कारणविना भासि आया, ताते भ्रममात्रही था ॥ हे वधिक ! वस्तु सोई होती है,अरु जगत्की भ्रांति आत्माविषे भासी तौ जगत् आत्मरूप क्यों हुआ, जब सृष्टि फुरी नहीं तब अद्वैत आत्मसत्ता थी, तिसविषे संवेदन फुरणे कारकै जगत् हुएकी नाईं उदय हुआ, सो क्या हुआ,जैसे सूर्यको किरणोंविषे जल भासता है, सो किरणें जलरूप भासती हैं, तैसे यह जगत् आत्माका आभास है, सो आत्माहीजगतरूप हो भासता है, तहाँ न कोऊ शरीर था, न कोऊ हृदय था, न पृथ्वी जल वायु अग्नि आकाश था, न उत्पत्ति प्रलय न अपर कोऊ था, केवल चिन्मात्ररूपही था ॥ हे वधिक ! ज्ञानदृष्टिकार हमको