पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७५६

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कर्मनिर्णयवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६३७) सच्चिदानही भासता है, सो शुद्ध है, सर्व दुःखते रहित परमानंद है, जगत् भी वहीरूप है, तुमसारखेको जो जगत भासता है, शब्द अर्थरूप सो आत्माविषे कछ हुआ नहीं, केवल चिन्मात्रसत्ता है,सर्वदा हमको आत्मरूपही भासता है, जो तू चाहें तौ तुझको भी चिन्मात्रही भासै तौ सर्व कल्पना मनते त्यागिकारे तिसके पाछे जो शेष रहैगा, सो आत्मसत्ता है, सबका अनुभवरूप वही है, सो प्रत्यक्ष है, अरु शुद्ध है, सर्वदा स्वभावसत्ताविषे स्थित है, अरु अमर है, तुम भी तिस स्वभावविषे स्थित होहु ॥ हे वधिक ! आत्मसत्ता परम सूक्ष्म है, जिसविषे आकाश भी स्थूल है, जैसे सूक्ष्म अणुते पर्वत स्थूल होता है, तैसे आत्मासों आकाश भी स्थूल है, सो आत्माविषे क्या सूक्ष्मता है, यही सूक्ष्मता है, जो आत्मत्वमात्र है, जिसविध उत्थान कोऊनहीं, केवल निर्मल स्वभावसत्ता हैं, अरु निराभास है, तिसविषे यह जगत् भासता हैं, ताते वहीरूप है, जैसे काल होता है, तिसीविषे क्षण, पल, घड़ी, प्रहर, दिन, मास, वर्ष,युग संज्ञा होती है, सो कालही है, तैसे एकही आत्माविषे अनेक नामरूप जगत् होता है, जैसे एक बीजविषे पत्र, टास, फूल, फल नाम होते हैं, तैसे एक आत्माविषे अनेक नामरूप जगत् होता है, सो आत्माते इतर कछ वस्तु नहीं; सब आत्मस्वरूप हैं,जो आत्माते इतर भासै तो भ्रममात्र जान, जैसे संकल्पपुर होता हैं, तैसे यह जगत् है ॥ हे वधिक ! आत्माविषे जगत् कछु बना नहीं, सो आत्मा तेरा अपना आप अनुभवरूप है अरु परमशुद्ध है,तिसविषे न जन्म है नमरण हैं, चिदाकाश अपनाआप है, जो तेरा है, आप अनुभवरूप शुद्ध सत्ता है, तिसको नमस्कार है॥ हे वधिक 1 तू तिसविषे स्थित हो, तब तेरे दुःख नष्ट हो जावेंगे, अरु यह जगत अज्ञानीको सत् भासता है, ज्ञानवान्को सदा आकाशरूप भासता है, जैसे एक पुरुष सोया है, अरु एक जागता है, जो सोया है। तिसको स्वप्नविषे महल माडी जगत् भासता है, अरु जातको आकाशरूप है, तैसे अज्ञानीको जगत् भासता है, अरु ज्ञानवानको आत्मरूप हैं ॥ वधिक उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! एक कहते हैं, यह जीव कर्मकार होता है, अरु एक कहते हैं, कर्मविना उत्पन्न होता है, दोनोंविषे सत्य क्या है ?