पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७५७

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(३६३८) योगवासिष्ठ । मुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिको आदि जो प्रमात्माते ब्रह्मादिक फुरे हैं,सो कर्मकार नहीं हुए, वह कर्मविनाही उत्पन्न हुए हैं, न कहूँ जन्म है, न कर्म हैं, वह ब्रह्मही स्वरूप हैं, उनका शरीर भी ज्ञानरूप है; वह अपर अवस्थाको नहीं प्राप्त हुआ, सर्वदा उनको अधिष्ठान आत्माविषे अहंप्रतीति है ॥ हे वधिक ! सृष्टिके आदि जो ब्रह्मादिक फुरे हैं, सो ब्रह्मते इतर नहीं, अरु अपर जो अनंत जीव फुरे हैं, जिनका आदिही आत्मपदते प्रगट होना भया है, सो भी ब्रह्मरूप हैं,ब्रह्मते इतर कछु नहीं,आदि सब ब्रह्मा चेतन स्वयंभू हैं, परंतु ब्रह्मा विष्णु रुद्रादिकको अविद्याने स्पर्श नहीं किया, वह विद्यारूप हैं, अरु जीव अविद्याके वशते प्रमाकरिके परतत्र हुए हैं। बहुरि कर्मकार कर्मके वश हुए हैं, संसारविषे शरीर धारते हैं, जब उनको आत्मज्ञान प्राप्त होता हैं, तब कमैके बंधनते मुक्त होकर आत्मपदको पाते हैं; हे वधिक ! आदि जो सृष्टि हुई है, सो कर्मविना उपजी है,अरु पाछे अज्ञानके वशते कर्म के अनुसार जन्म मरणको देखते हैं, जैसे स्वमसृष्टि आदि कर्मविना उत्पन्न होती है, पाछे कर्मकार उत्पन्न होती भासती है, तैसे यह जगत् है, आदि जीव कर्मविना उपजे हैं,पाछे कर्मके अनुसार जन्म पाते हैं, अरु ब्रह्मादिकके शरीर शुद्ध ज्ञानरूप हैं, ईश्वरविपे जीवभाव दृष्ट आता है तो भी तिस कालविषे भी ब्रह्मही स्वरूप हैं, उनको कर्म कोऊ नहीं, केवल आत्माही उनको भासता है, आत्माते इतर कछु नहीं, जैसे स्वप्रविष द्रष्टाही दृश्यरूप होता है, अरु नानाप्रकारके कर्म दृष्ट आते हैं, परंतु अपर कछु हुआ नहीं, तैसे जेता कछु जगत् भासता है सो सब चिन्मात्रस्वरूप है, अपर कछु नहीं, सुख दुःख भी वही भासता है, परंतु अज्ञानीको जगत्प्रतीति होती है, तबलग कर्मरूपी फाँसीकरि बांधा हुआ दुःख पाता है,जब स्वरूपविषे स्थित होवैगा, तब कर्मके बंधनते मुक्त होवैगा, वास्तवते न कोऊ कर्म है, न किसीको बंधन है, यह मिथ्याभ्रम है, केवल आत्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, दूसरा कछु होवै तौ मैं कहौं कि यह कर्म है, इसको बंधन किया है, यह जगत् आत्माविषे ऐसे हैं जैसे जलविषे तरंग होता है,सो भिन्न कछु नहीं,जलते तरंग उत्पन्न होता है सो किस कर्मकार होता है।