पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७५९

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( १६४०) योगवासिष्ठ । द्विशताधिकत्रिंशत्तमः सर्गः २३०. महाशवोपाख्याने निर्णयोपदेशवर्णनम् ।। मुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक जो ज्ञानवान् पुरुष हैं, सो परमानंदुको प्राप्त होते हैं, जिस आनंदके पायेते जो इयिका आनंद हैं। सो सूखे तृणवत् तुच्छ भासता है, अरु जैसा सुख पृथ्वी आकाश पातालविषे भी कहूँ नहीं, तैसा सुख ज्ञानवान्को प्राप्त होता है, जिसको ऐसा आनंद प्राप्त भया है, सो किसकी इच्छा केरै, अरु आत्मानंद तब प्राप्त होता है, जब आत्मअभ्यास होवे, आत्मा शुद्ध है, अरु सर्वदा अपने आपविषे स्थित है, अरु जो कछु आगे दृष्ट आता है, सो अविछाका विलास है, जब तू अपने स्वरूपविषे स्थित होवैगा, तब सब ब्रह्म तुझको भासैगा । हे वधिक ! पृथ्वी आदिक जो तत्व हैं सो हैं। नहीं, जो कछु होते तो इनका कारण भी कोऊ होता, जो यह भी नहीं तौ कारण किसको कहिये, अरु जो इनका कारण कहूं नहीं तौ कार्य किसको कहिये, ताते यह भ्रममात्र है, विचार कियेते जगत्का अभाव हो जाता है,आत्मसत्ताही ज्योंकी त्यों भासती है, जैसे किसीको जेवरीविषे सर्प भासता हैं, जब वह भली प्रकार देखै, तब सर्पभ्रम मिटिजाता हैं, ज्योंकी त्यों जेवरीही भासती है, तैसे विचार कियेते आत्मसत्ताही भासती है, जैसे कहूँ आकाशविषे संकल्पका वृक्ष रचें तौ आकाशविषे होवै, तैसा भासता है, जैसे किसी पुरुषने संकल्पकार देवताकी प्रतिमा रची अरु तिसके आगे अपनी प्रार्थना करने लगा, तिस भावनाकार उसका कार्य सिद्ध हुआ, सो कैसे सिद्ध हुआ, अनुभवहीते सिद्ध हुआ, जिसके आश्रय वह प्रतिमा हुई, तिसकार कार्य सिद्ध भया ॥ हे वधिक! जेता कछु जगत् तू देखता है, सो सब संकल्पमात्र है, जैसे स्वप्नविषे नानाप्रकारकी सृष्टि भासती है, सो स्वममात्र है, तैसे यह सर्व विश्व ब्रह्माके संकल्पविषे स्थित है, आदि जो परमात्माते ऊरणा हुआहै, सो कर्म विना सृष्टि उपजी है, वह किंचन आभासरूप है, बहार आगे जो