पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७६

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परमार्थयोगोपदेशवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

सत्यको सत्य जानता है, असत्यको असत्य जानता है, इस कारणते दुःख नहीं पाता, अरु जो असम्यक‍्दर्शी है, सो अज्ञानकरिकै दुःख पाता है, जैसे दिनके अंतविषे मंडल शीतल हो जाता है, तैसे सम्यक‍्दर्शीका अंतर शीतल होता है, जिसको कर्तव्यविषे कर्तृत्वका अभिमान नहीं, सो सम्यक‍्दर्शी है॥ हे रामजी! जेते कछु जगत‍्के पदार्थ हैं, तिनको अंतरते आभासमात्र जान, अरु बाहर जैसे आचार होवे तैसे करु, अथवा तिसका भी त्याग करु, निराभास होकरि स्थित होहु, मैं चिदाकाश हौं, नित्य हौं, सर्वज्ञ हौं, अरु सर्वते रहित हौं, ऐसे अभ्यासकरि एकांत निर्मल आपको देखेगा, अथवा ऐसे धार कि, न मैं हौं न यह भोग हैं, न अर्थरूप जगत् आडंबर है, अथवा ऐसे धार कि, सर्व मैंही हौं, नित्य शुद्ध चिदात्मा हौं आकाशरूप हौं, मेरेते इतर कछु नहीं, मैंही अपने आपविषे स्थित हौं, इन दोनों पक्षविषे जो इच्छा होवै, सो धर, तुझको सिद्धताका कारण होवैगा, अरु जगत‍्को आभासमात्र जान, परंतु यह भी कलंकरूप है, इस चिंतनाको भी त्यागिकरि निराभास होहु, तू चिदाकाश नित्य है, सर्वव्यापी है, अरु सर्वते रहित है, आभासको त्यागिकरि निर्मल अद्वैत होय रहु, अथवा विधिनिषेध दोनों दृष्टिको आश्रय कर॥ हे रामजी! क्रियाको करहु परंतु रागद्वेषते रहित होहु, जब रागद्वेषते रहित होवैगा, तब उत्तम पदार्थ ब्रह्मानंदको प्राप्त होवैगा, जो सर्वका अधिष्ठान है, तिसको पावैगा॥ हे रामजी! जिसका हृदय रागद्वेषरूपी अग्निकरि जलता है, तिसको संतोष वैराग्य आदिक गुण नहीं प्राप्त होते, जैसे दग्ध भूतलके वनविषे हिरण नहीं प्रवेश करते तैसे रागद्वेषादिकवाले हृदयविषे संतोषादिक नहीं प्रवेश करते॥ हे रामजी! हृदयरूपी कल्पतरु है, जो ऐसा वृक्ष रागद्वेषादिक सर्पनते रहित है, तिसते कौनके पदार्थ है, जो न प्राप्त होवै, शुद्ध हृदयते सब कछु प्राप्त होता है, यह अर्थ है॥ हे रामजी! जो बुद्धिवान् भी है, अरु शास्त्रका ज्ञाता भी है, परंतु रागद्वेषसंयुक्त है सो गीदडकी नाईं नीचे है तिसको धिक्कार है, जिन पदार्थनके पानेकेनिमित्त यह यत्न करते हैं सो तौ आते जाते हैं,