पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७६०

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महाशवोपाख्यानेनिर्णयोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६४१) ब्रह्माने रचा हैं, सो संकल्परूप है, बहुरि आगे अज्ञानकरिकै कर्म करने लगे, तब कर्मकरि उत्पत्ति होती दृष्ट आई है,जैसे स्वप्नविषे स्वप्नकी सृष्टि भ्रममात्रही दृढ हो भासती हैं, जबलग स्वप्न अवस्थाविषे है, तबलग जैसा वहाँ कर्म करेगा तैसाही भासँगा, अरु जो जागि उटै तौ ने कहूँ कर्म है, न जगत् है, तैसे यह सब संकल्पमात्र हैं, ज्ञानवान्कार अभाव हो जाता है ॥ हे वधिक । यह जो मुझको मनुष्य भासतेहैं, सो मनुष्य नहीं, तिनके कर्म तुझको कैसे कहौं, जैसे स्वप्नके निवृत्त हुए स्वप्नसूएिका अभाव होता है, तैसे अविद्याके निवृत्त हुए अविद्यक सृष्टिका अभाव हो जाता है, अरु आत्मसत्ता अद्वैत हैं, तिसविषे जगत् कछु बना नहीं, वहीरूप है, जैसे आकाश अरु शून्यताविषे भेद कछु नहीं, जैसे वायु अरु स्पंदविषे भेद कछु नहीं; तैसे ब्रह्म अरु जगविषे भेद कछु नहीं, अरु जब चित्तसंवित् फुरती है, तब जगत् होकार भासती है, अरु जब नहीं झुरती, तब अद्वैत होकार स्थित होती है, अरु आत्मसत्ता फुरणे अफुरणेविचे ज्योंकी त्यों है, जन्म मरण बढना घटना जो नाम होते हैं, सौ मिथ्या हैं, काहेते कि दूसरी वस्तु कछु नहीं, जैसे किसीने जल कहा किसीने अंबु कहा, दोनों एकहीके नाम होते हैं, तैसे आत्मा अरु जगत् एकहीके नाम हैं, परंतु अज्ञानकारि भिन्न भिन्न भासते हैं, जैसे स्वप्नमें कार्य भासते हैं, परंतु हैं नहीं, तैसे जागृविर्षे कारण कार्य भासते हैं, परंतु हैं नहीं, वास्तवते आत्मतत्त्व है, तिस आत्माविषे जो चित्त ऊरता है अहं मम तिस उत्थानते आगे जो कछु फुरण होता गया सोई जगत् भया है, तिस जगविषे जैसा जैसा निश्चय हुआ है, तैसा तैसा भासने लगा है, तिसका नाम नेति है, तिस विषे देश काल पदार्थकी संज्ञा होने लगी है, अरु कारण कार्य दृष्टआते हैं सो क्या हैं, केवल आत्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, अपर कछु हुआ नहीं, परंतु हुयेकी नाई भासती है, जैसे स्वप्नविषे नानाप्रकारका जगत् भासता है, अरु कारण कार्य भी दृष्ट आता है, परंतु जागे हुए कछु दृष्ट नहीं आता, काहेते कि है नहीं, तैसे यह जगत् कारण कार्यरूप हृष्ट आता है, परंतु है नहीं, आत्माकार दृष्ट आता है, ताते आ