पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७६१

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११६४२) यौगवासिष्ठ । माही है, जैसे संकल्पनगर दृष्ट आता है, तैसे आत्माविषे घन चेतनताकारकै जगत् भासता है सो वहीरूप है, आत्माते इतर कछु नहीं, जैसा उसविषे निश्चय होता है, तैसा प्रत्यक्ष अनुभव होता है, जैता कछु जगत् दृष्ट आता है सो सब संकल्पमात्र है, संकल्पही जहां तहाँ उडते फिरते हैं, अरु अनुभवसत्ता ज्योंकी त्यों हैं, संकल्पही मरिकै प्रलोक देखता है । वधिक उवाच ॥ हे भगवन् । परलोकविषे जो यह मारकै जाता हैं, तिस शरीरका कारण कौन होता है, अरु तहाँ होती अरु होता कौन होता है, अरु यह शरीर तौ यहाँही रहता है, वह भोक्ता: शरीर कौन होता है, जिसकारि सुख दुःख भोगता है, अरु जो कहौ, तिस शरीरका कारण धर्म अधर्म होता है तौ धर्म अधर्म तौ अमूत्ति हैं, तिनते समुत्ति साकाररूप क्योंकार उत्पन्न हुआ ।। मुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक 1 शुद्ध अधिष्ठान जो आत्मसत्ता है, तिसके फुरणेकी एती संज्ञा होती हैं, कर्म आत्मा,जीव,फुरणा,धर्म, अधर्म,-इनते आदि लेकर नानाप्रकारके नाम होते हैं, जब शुद्ध चिन्मात्रविषे अहंका उत्थान होता है, तब देहकी भावना होती हैं, अरु देहही भासने लगती है, आगे जगत् भासता है, . स्वरूपके प्रमादकार संकल्परूप जगत् दृढ हो जाती है, बहुरि तिसविर्षे जैसा जैसा ऊरणा होता है, तैसा तैसा हो भासता हैं ॥ हे वधिक ! यह जगत् संकल्पमात्र है, परंतु स्वरूपके प्रमादकार सत् भासता अरु प्रमादकारि शरीरविपे अभिमान हो गया है, तिसकारकै कर्तव्य भोक्तव्य अपनेविषे मानता है, वासना दृढ हो जाती हैं, तिस वासनाके अनुसार परलोकको देखता है ॥ हे वधिक ! वहां न कोऊ परलोक है, न यह लोक है, जैसे एक स्वप्नको छांड्रिकार अपर स्वप्नको प्राप्त होवे, तैसे अविदित वासनाकारकें इस लोकको त्यागिकार परलोकको देखता है, जैसे स्वप्नविषे निराकारही साकार शरीर उत्पन्न होता . है, तैसे परलोकविषे है, वास्तवते क्या हैं, संकल्पही पिंडाकार होकरि भासता है, जैसी जैसी वासना होती है, तैसाही तिसके अनुसार होकार भासता है, अरु शरीर पदार्थ सबही आकाशरूप है ॥ हे वधिक ! असतही सत् होकार जन्म मरण भासता है, जैसा जैसा ऊरणा होता है, सार परक है, जैसे एक का इस लोकका १३ उत्पन्न हो