पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७६५

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(१६४६) योगवासिष्ठ । द्विशताधिकैकत्रिंशत्तमः सर्गः २३१, कार्यकारणाकारनिर्णयवर्णनम् । मुनीश्वर उवाच ।। हे वधिक ! जैसे अगाध ससुद्भविषे अनेक तरंग फुरते हैं, तैसे आत्माविषे अनेक सृष्टि फ़रती हैं, जीव जीव प्रति अपनी अपनी सृष्टि है, परंतु परस्पर अज्ञात हैं, एककी सृष्टिको दूसरा नहीं जानता, अरु दूसरेकी सृष्टिको वह नहीं जानता, जैसे एकही स्थानविये दो पुरुष सोये होवें, उनको अपने अपने फुरणेकी सृष्टि भासि आती है। उसकी सृष्टिको वह नहीं जानता, उसकी सृष्टिको वह नहीं जानता परस्पर अज्ञात हैं, तैसेही सब सृष्टि आत्माविषे फुरती हैं, परंतु एककी सृष्टिको दूसरा नहीं जानता, अरु जो धारणाभ्यासी योगी होता है, तिसको अंतवाहक शरीर प्रत्यक्ष हुआ है, सो दूसरेकी सृष्टिको भीजानता है, जैसे एक तलावका दर्दुर होता है अरु एक कूपका दुर्दुर होता है, अरु एक समुद्रका दर्दुर होता है, सो स्थान तौ भिन्न भिन्न होते हैं, परंतु जल एकही है, भावे कैसा दुर्दुर होवै; तिसको जल ज्ञानताहै, कि मेरेविषे है, तैसे जगत भिन्न भिन्न अंतःकरणविषे है, परंतु आत्मसत्ताके आश्रय है। आदि जो संवेदन तिसविषे फुरी है, सो अंतवाहक है, जब अंतवाहकविषे योगी स्थित होता हैं, तब अपरके अंतवाहकको भी जानता है, इस प्रकार अनंत सृष्टि आत्माके आश्रय अंतवाहविषे फुरती हैं, सो आत्माका किंचन है, फुरती भी हैं,अरु मिटि भी जाती हैं, संवेदनके फुरणेते सृष्टि उत्पन्न होती है, अरु संवेदनके ठहरणेते मिटि जाती है, आकाशरूप होती है, अरु वायुके ठहरनेते जल एकरूप हो जाता है। जलते इतर कछु नहीं भासता, तैसे ऊरणेकार आत्माविषे अनंत सृष्टि भासती हैं अरु संवेदनके ठहरनेते सब आत्मरूप हो जाती हैं, आत्माते इतर कछु नहीं भासती हैं, तिसते इतर मादकार भासती हैं, बहुवारि कारणकायंभ्रम भासता है,प्रथम जो सृष्टि फुरी है, सो कारणकार्यके क्रमते रहित ऊरी है, पाछे कारणकार्यक्रम भासा, बार तिसका संस्कार हृदयविर्षे हुआ, तब संस्कारके वशते भासने लगी,प्रथम संस्कारते रहित अकस्मा