पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

योगवासिष्ठ । अत्यंत अभाव है, अपर पदार्थ कछु बनै नहीं,आत्मसत्ताही अपने आपविषे स्थित है, सो चिदाकाश चिन्मात्र है, तिसका किंचन चेतनता है, जैसे सूर्यको किरणोंका आभास जल भासता है, परंतु जड़ है, तैसे आस्माका किंचन भी चेतन है, सो किंचन संवेदन अहंभावको लेकर फुरती गई है, जैसे जैसे फुरती है, तैसा तैसा जगत हो भासता है, जो जो तिसविषे निश्चय किया है, जो यह कर्तव्य है, इसके करणेकार पुण्य है, इसके करणेकार पाप है, यह करना है, यह नहीं करना, देश काल क्रिया क्रम है, यह इसी प्रकार है, यह ऋषि है, यह देवता है, यह मनुष्य है, यह द्वैत है, यह धर्म है, यह कम है, इसकार इनको बंधन है, इसकार इनको सोक्ष है । हे वधिक ! जो आदि नेति रची है, तैसेही अवलग स्थित है, अन्यथा नहीं होती, तिसविषे कारण कार्य क्रम हैं, प्रथम जो सृष्टि फुरी है, सो बुद्धिपूर्वक नहीं बनी, आकाशमात्र कुरी है, जैसे फुरी है तैसेही स्थित है, बहुरि पदार्थ जो एकभावको त्यागिकार अपर भावको अंगीकार करते हैं, सो कारण करिकै करते हैं, कारणविना नहीं होते; काहेते कि प्रथम सृष्टि अकारण हुई है, पाछेते सृष्टि भावविध कारण कार्य हुए हैं, परंतु हे वधिक ! जिन पुरुषों को आत्माका साक्षात्कार हुआ है तिनको यह जगत् कारणविना ब्रह्मस्वरूप भासता है अरु जिनको आत्मसत्ताका प्रमाद है, तिनको जगत्कारण असत् भासता है, परंतु आत्मा ब्रह्म निराकार अकारण है; तिसविषे संवेदनके ऊरणेकार अब्रह्मता भासतीहै, अरु निराकारविषे आकार भासताहै, अरु अकारणविषे कारणता भासती है, अरु जब संवेदन जो मनका कुरणा है सो स्थिर होता है, तब सर्वं जगत् कारणकार्यसहित भासता है, प्रथम अकारण फुरा है, पाछेते देवता मनुष्य पशु पक्षी पृथ्वी जल तेज वायु आकाश पदार्थकी मर्यादा भई हैं, बंध अरु मोक्षकी नेति हुई है, सो ज्योंकी त्यों है, जो जल शीतलही हैं, अग्नि उपाही है, इत्यादिक जैसे नेति है, तैसे स्थित है, अरु जब आत्मसत्ताविषे जागता है, तब जगत् कारणकार्यसहित नहीं भासता, जैसे स्वप्नसृष्टि प्रथम अकारण भासि आती है, जब दृढ होजाती है, तब कारणों कार्य होता है, इढ हो आता है।